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लेख

देशद्रोह कानून को चुनौती : सुभाष गोयल, समाज सेवक एवं एम.डी.वर्धान आर्युवेदिक आर्गेनाइजेशन

August 01, 2021 07:19 PM

लगभग 60 वर्ष पुराने फैसले ने भारतीय दंड संहिता में देशद्रोह कानून को बनाए रखने में मदद की। केदारनाथ मामले में वर्ष 1962 का फैसला, जिसने औपनिवेशिक विरासत के अवशेष, धारा 124अ (देशद्रोह) को बरकरार रखा था, ऐसे समय में दिया गया था जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'द्रुतशीतन प्रभाव' (प्रतिबंधात्मक कानून से उत्पन्न प्रभाव) जैसे सिद्धांत अनसुने थे। यह फैसला  ऐसे समय में आया जब मौलिक अधिकारों का दायरा और अंतर-संबंध प्रतिबंधात्मक था। केदार नाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लगाए गए प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा और फैसला सुनाया कि अगर कानून द्वारा स्थापित सरकार को उलट दिया जाता है तो राज्य का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। हालाँकि यह कहा गया है कि धारा 124अ केवल उन अभिव्यक्तियों पर लागू होगी जो या तो हिंसा का इरादा रखती हैं या जिनमें हिंसा कराने की प्रवृत्ति है।
न्यायालय का फैसला
    यह सरकार को एक कड़ा संदेश देता है कि नागरिकों के भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को रौंदने के लिये अधिकारियों द्वारा देशद्रोह कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायालय जनता की मांग के प्रति संवेदनशील हैं, जिस तरह से कानून प्रवर्तन अधिकारी स्वतंत्र भाषण को नियंत्रित करने और पत्रकारों, कार्यकत्तार्ओं तथा असंतुष्टों को जेल भेजने एवं उन्हें वहाँ रखने के लिये राजद्रोह कानून का उपयोग कर रहे हैं, उसकी न्यायिक समीक्षा की जानी चाहिये।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124अ का समय बीत चुका है। न्यायालय ने कहा, सरकार के प्रति असंतोष की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं के आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाला कोई भी कानून अनुच्छेद 19 (1)  के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है और संवैधानिक रूप से अनुमेय भाषण पर 'द्रुतशीतन प्रभाव' का कारण बनता है।
राजद्रोह कानून की पृष्ठभूमि:
राजद्रोह संबंधी कानून प्राय: 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में बनाए गए थे, जब सांसदों का यह मानना था कि सरकार के प्रति केवल अच्छी राय को ही बढ़ावा दिया जाना चाहिये, क्योंकि सरकार के प्रति नकारात्मक राय सरकार और राजशाही के लिये हानिकारक हो सकती थी।
 इस कानून को मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार-राजनेता थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड संहिता को लागू करते समय इस प्रावधान को उसमें शामिल नहीं किया गया था।
 हालाँकि वर्ष 1970 में जब इस प्रकार के अपराधों से निपटने के लिये एक कानून की आवश्यकता महसूस हुई तब सर जेम्स स्टीफन द्वारा एक संशोधन प्रस्तुत किया गया और इसके माध्यम से भारतीय दंड संहिता में धारा 124अ को शामिल किया गया।
 यह उस समय असंतोष की किसी भी आवाज को दबाने के लिये बनाए गए कई कठोर कानूनों में से एक था।
 अंग्रेजों द्वारा महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे प्रमुख राजनेताओं को गिरफ्तार करने और उनकी आवाज को दबाने के लिये भी इस कानून का प्रयोग किया गया था।
 वर्तमान में राजद्रोह कानून: भारतीय दंड संहिता  की धारा 124अ के तहत देशद्रोह एक अपराध है।
आई पी सी की धारा 124ए
 यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है।
 विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
राजद्रोह के अपराध हेतु दंड
 राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है और इसके साथ जुमार्ना भी लगाया जा सकता है।  इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है।  आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे न्यायालय में पेश होना जरूरी है।
 धारा 124 ए के पक्ष में तर्क
यह राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने में उपयोगी है। यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाता है।  यदि अदालत की अवमानना  पर दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती है तो सरकार की अवमानना पर भी सजा होनी चाहिये। विभिन्न राज्यों में कई जिले माओवादी विद्रोह और विद्रोही समूहों का सामना करते रहे हैं, वे खुले तौर पर क्रांति द्वारा राज्य सरकार को उखाड़ फेंकने की वकालत करते हैं। इस पृष्ठभूमि में धारा 124अ को समाप्त करने की सलाह केवल इसलिये गलत होगी क्योंकि इसे कुछ अत्यधिक प्रचारित मामलों में गलत तरीके से लागू किया गया है।
 धारा 124 ए के विरुद्ध तर्क
यह वाक् और अभिव्यक्ति की संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा स्वतंत्रता के वैध व्यवहार पर एक बाधा है। सरकार की असहमति और आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र में मजबूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं। उन्हें देशद्रोह के रूप में व्यक्त नहीं किया जाना चाहिये। भारतीयों पर अत्याचार करने के लिये देशद्रोह का परिचय देने वाले अंग्रेजों ने अपने देश में स्वयं इस कानून को समाप्त कर दिया है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि भारत इस धारा को समाप्त न करे। धारा 124ए के तहत 'असंतोष' जैसे शब्द अस्पष्ट हैं और जाँच अधिकारियों के व्यवहार एवं कल्पनाओं के अंतर्गत अलग-अलग व्याख्याओं के अधीन हैं।
आई पी सी और गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) संशोधन अधिनियम 2019 में ऐसे प्रावधान हैं जो सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने संबंधी मामलों में दंडित करते हैं। ये राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिये पर्याप्त हैं। राजद्रोह कानून का राजनीतिक असंतोष से बचने के लिये एक उपकरण के रूप में दुरुपयोग किया जा रहा है। वर्ष 1979 में भारत ने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध की पुष्टि की, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानकों को निर्धारित करता है। हालाँकि देशद्रोह का दुरुपयोग व मनमाने ढंग से आरोप लगाना भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है। जो अभिव्यक्ति या विचार उस समय की सरकार की नीति के अनुरूप नहीं है, उसे देशद्रोह नहीं माना जाना चाहिये।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये धारा 124 ए का दुरुपयोग एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। केदारनाथ मामले में दी गई कैविएट के अनुसार, कानून के तहत मुकदमा चलाकर इसके दुरुपयोग की जाँच की जा सकती है। इसे बदले हुए तथ्यों और परिस्थितियों के तहत तथा आवश्यकता, आनुपातिकता और मनमानी के निरंतर विकसित होने वाले परीक्षणों के आधार पर जाँचने की आवश्यकता है।

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