दिल्ली एक बार फिर ‘गैस चेंबर’ में तब्दील हो चुकी है। हालिया रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि राजधानी में पिछले एक साल में वायु प्रदूषण के कारण करीब 17,000 लोगों की मौत हुई है। यह संख्या हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और अन्य जीवनशैली संबंधी बीमारियों से हुई मौतों से भी अधिक है। विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में सांस लेना अब धीरे-धीरे मौत को दावत देने जैसा हो गया है।
प्रदूषण बना मौन हत्यारा
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) और आईसीएमआर के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर लगातार खतरनाक श्रेणी में बने हुए हैं। औसतन हर तीसरा व्यक्ति अस्थमा, एलर्जी या फेफड़ों की किसी न किसी बीमारी से जूझ रहा है। रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषित हवा से होने वाली मौतें अब हृदय रोग, स्ट्रोक और डायबिटीज से आगे निकल चुकी हैं।
बच्चों और बुजुर्गों पर सबसे ज्यादा असर
दिल्ली एनसीआर के अस्पतालों में सांस से जुड़ी बीमारियों के मरीजों की संख्या 40% तक बढ़ गई है। खासतौर पर बच्चे, बुजुर्ग और गर्भवती महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही हैं। एम्स के विशेषज्ञों के मुताबिक, राजधानी में प्रदूषण के कारण नवजात शिशुओं में कम वजन और फेफड़ों की क्षमता में कमी जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं।
सरकार के प्रयास और चुनौतियाँ
दिल्ली सरकार ने ‘ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान’ (GRAP) और ‘ऑड-ईवन स्कीम’ जैसी कई पहलें की हैं, लेकिन परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं मिल रहे। पराली जलाने, वाहन उत्सर्जन, निर्माण धूल और औद्योगिक धुएं ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। दिल्ली-एनसीआर में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) कई दिनों से 400 के पार है, जो ‘गंभीर’ श्रेणी में आता है।
अब क्या है समाधान?
विशेषज्ञों का मानना है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केवल अल्पकालिक नहीं, बल्कि दीर्घकालिक नीति की आवश्यकता है। इसमें स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा, सार्वजनिक परिवहन में सुधार, हरित क्षेत्र का विस्तार और सख्त उत्सर्जन नियंत्रण नियमों का पालन जरूरी है।
यदि हालात ऐसे ही बने रहे, तो दिल्ली आने वाले वर्षों में स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में पहुंच सकती है — जहां सांस लेना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी।