दर्पण न्यूज़ सर्विस
पटना, 02 अक्तूबर: बिहार में जाति आधारित गणना की पहली रिपोर्ट आ गई। कुछ जातियों को छोड़ दें तो रिपोर्ट के आंकड़े 1931 की जनगणना से मिलते जुलते हैं। एकाध प्रतिशत कम या अधिक। इसे पलायन की प्रवृत्ति से जोड़ा जा सकता है। शिक्षा और संपर्क के आधार पर इन वर्षों में रोजगार के लिए जिन जातियों का पलायन अधिक हुआ, उनकी संख्या कम हुई। दूसरी तरफ कृषि और श्रम पर आश्रित जातियों की संख्या में स्थिरता बनी रही।
सवर्णों में यह प्रवृत्ति अधिक कि उनकी एक पीढ़ी अगर किसी दूसरे राज्य में स्थापित हो जाती है तो दूसरी पीढ़ी के सदस्य मूल निवास से नाता तोड़ लेते हैं। धीरे-धीरे गांव के अतिथि हो जाते हैं। 1931 के आधार पर अगर किसी गांव का आज की तिथि में सर्वेक्षण हो तो यह तथ्य स्थापित हो जाएगा।
कई ऐसे परिवार मिलेंगे, जिनके पुश्तैनी मकान ध्वस्त हो गए या बिक गए हैं। 1931 में ब्राह्णणों की आबादी 4.7 प्रतिशत थी। ताजा गणना में यह 3.65 प्रतिशत है। राजपूत भी 4.2 से 3.45 प्रतिशत पर आए गए। मगर भूमिहार जाति की आबादी लगभग स्थिर है-1931 के मुकाबले 2.86 प्रतिशत।
अपनी जमीन से बनाए रखते हैं नाता
इस जाति के अधिसंख्य लोग नौकरी या कारोबार के लिए दूसरे राज्यों में जाते हैं। लेकिन, जमीन से अपना नाता बनाए रखते हैं। कायस्थों की आबादी में भी बड़ी गिरावट का यही कारण माना जा सकता है। 1931 में इनकी आबादी 1.2 प्रतिशत थी। वह 0.66 प्रतिशत रह गई है।
गांवों में इस जाति के पुश्तैनी घर कम रह गए हैं। खेती की जमीन पर स्वामित्व भी लगातार कम हो रहा है। दूसरी तरफ ओबीसी की तीन मजबूत जातियों में से सिर्फ एक कुर्मी की आबादी में सिर्फ गिरावट दर्ज की गई है। यादव और कोइरी की आबादी बढ़ी है।