भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की एक बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र क्षेत्र पर निर्भर करती है, चाहे वह खेतों में मजदूरी हो, सड़क किनारे दुकान हो, घरेलू काम हो या फिर ईंट-भट्ठों में मेहनत। आइए समझते हैं कि असंगठित क्षेत्र का भारत की सामाजिक-आर्थिक तस्वीर पर क्या और कितना असर होता है और भविष्य में हो सकता है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, असंगठित क्षेत्र से आशय उन सभी आर्थिक गतिविधियों से है जो औपचारिक रूप से पंजीकृत नहीं हैं और जिनमें श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा या पेंशन जैसी सुविधाएं नहीं मिलतीं। यह क्षेत्र कृषि, निर्माण, घरेलू कार्य, खुदरा व्यापार, हस्तशिल्प, गारमेंट्स, परिवहन, खानपान, और छोटे उद्यमों को सम्मिलित करता है।यह भी सच है कि भारत की लगभग 90% कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। यह आंकड़ा अपने-आप में चौंकाने वाला है। कृषि क्षेत्र में लगभग 45% लोग कार्यरत हैं, जो अधिकतर असंगठित हैं। इसके अलावा, निर्माण और सेवा क्षेत्र में भी असंगठित श्रमिकों की भरमार है।रिपोर्ट का यह भी कहना है कि जीडीपी में इस क्षेत्र का योगदान लगभग 45% है, लेकिन इसकी मान्यता और श्रमिकों के अधिकार नगण्य हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट इस क्षेत्र से संबंधित कई बिंदुओं को रेखांकित करती है। जैसे असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोगों को नियमित रोजगार, सुरक्षित कार्यस्थल और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इससे उनकी जीवन गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।घरेलू कार्य और कृषि जैसे क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलाएं कार्यरत हैं, लेकिन उन्हें श्रम कानूनों के तहत संरक्षण नहीं मिलता। रिपोर्ट में यह विशेष चिंता का विषय बताया गया है।केवल 10% असंगठित श्रमिक ही ईएसआई, पीएफ या बीमा जैसी किसी सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत आते हैं। बाकी 90% श्रमिक किसी भी तरह की सुरक्षा से वंचित हैं।न्यूनतम वेतन कानून के बावजूद असंगठित श्रमिकों को बहुत कम मजदूरी दी जाती है। साथ ही कार्यस्थलों पर उनका शोषण आम बात है।नीति निर्माण की एक बड़ी बाधा यह है कि इस क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों का समुचित डाटा उपलब्ध नहीं है। अधिकांश सर्वेक्षणों में इन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। दूसरी ओर कोविड-19 महामारी ने असंगठित क्षेत्र की हकीकत को बेहद क्रूरता से उजागर कर दिया। लॉकडाउन के दौरान लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए, सड़कों पर पैदल अपने गांवों की ओर लौटते देखे गए। इस मानवीय संकट ने यह सिद्ध कर दिया कि असंगठित श्रमिक देश की आर्थिक धड़कन तो हैं, लेकिन उन्हें किसी भी योजना में प्राथमिकता नहीं मिलती। रिपोर्ट के अनुसार, महामारी के बाद लगभग 75% असंगठित श्रमिकों की आमदनी में भारी गिरावट दर्ज की गई। महिलाओं और अल्पसंख्यक वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। यही वजह है कि नीति आयोग ने असंगठित क्षेत्र से संबंधित कई सिफारिशें की हैं। इनमें सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली- सभी असंगठित श्रमिकों को यूनिवर्सल हेल्थकेयर, पेंशन और बीमा योजनाओं से जोड़ा जाए। ई-श्रम पोर्टल का विस्तार-केंद्र सरकार के ई-श्रम पोर्टल को और प्रभावी बनाना आवश्यक है ताकि सभी श्रमिक पंजीकृत हों और योजनाओं का लाभ ले सकें। राज्यों की भूमिका-राज्यों को चाहिए कि वे स्थानीय स्तर पर कार्यरत असंगठित श्रमिकों की पहचान कर उन्हें राज्य की योजनाओं से जोड़ें। महिला श्रमिकों के लिए विशेष नीति-घरेलू कामगार, कृषि मजदूर और कारीगरों के लिए विशेष सुरक्षा और प्रशिक्षण योजनाएं बनाई जाएं।उद्यमिता को बढ़ावा देना-छोटे व्यापारियों और कारीगरों को माइक्रो फाइनेंस, क्रेडिट लिंक्ड स्कीम और डिजिटल ट्रेनिंग के माध्यम से सशक्त किया जाए आदि शामिल हैं। इस से संबंधित विशेषज्ञों की राय भी है। अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार के अनुसार, “जब तक असंगठित क्षेत्र को औपचारिकता की छाया में नहीं लाया जाएगा, तब तक ‘विकास’ केवल आंकड़ों तक ही सीमित रहेगा।” वे इस बात पर जोर देते हैं कि केवल जीडीपी नहीं, मानव विकास सूचकांक भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अधिकांश सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी मानना है कि अगर भारत को एक समावेशी अर्थव्यवस्था बनना है, तो असंगठित क्षेत्र को केंद्र में लाना होगा। आइये देखते हैं मौजूदा सरकारी प्रयासों के बारे में। सरकार ने असंगठित श्रमिकों के लिए कुछ प्रमुख योजनाएं शुरू की हैं इन में अगस्त 2021 में शुरू हुआ यह पोर्टल असंगठित श्रमिकों का राष्ट्रीय डेटाबेस बनाने का प्रयास है। इस योजना के तहत असंगठित श्रमिकों को वृद्धावस्था में पेंशन का लाभ मिलता है। यह योजना कोरोना के दौरान शुरू की गई थी, जिससे बेरोजगार असंगठित श्रमिकों को अस्थायी सहायता दी गई।हालांकि, नीति आयोग की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि ये योजनाएं सशक्तिकरण के लिए पर्याप्त नहीं हैं।अब विचार करते हैं इस समस्या के समाधान के बारे में। श्रम सुधारों को केवल कानून पुस्तकों तक सीमित न रखकर जमीन पर लागू करना होगा। असंगठित श्रमिकों को डिजिटल साक्षरता से लैस किया जाए ताकि वे सरकारी योजनाओं से जुड़ सकें।पंचायत और नगर निगम स्तर पर श्रमिकों की पहचान और सहायता के लिए व्यवस्था बनानी होगी। कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत निजी क्षेत्र भी इस दिशा में योगदान दे सकता है। अंत में कह सकते हैं कि नीति आयोग की रिपोर्ट “भारत में असंगठित क्षेत्र” सिर्फ आंकड़ों की एक सूची नहीं है, बल्कि यह एक जागरण का दस्तावेज़ है। यह हमें यह सोचने को विवश करता है कि एक ऐसा क्षेत्र, जो देश की अर्थव्यवस्था को जीवित रखता है, वह क्यों अब भी नीति के हाशिए पर है। आज जरूरत है कि हम असंगठित क्षेत्र को केवल ‘सपोर्ट सिस्टम’ न मानें, बल्कि उसे भारत के आर्थिक भविष्य की नींव के रूप में पहचानें। तभी सही मायनों में ‘सबका साथ, सबका विकास’ की परिकल्पना साकार हो सकेगी।