भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां देश की आजादी के बाद 30 अप्रैल 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में सर्वसम्मति से जातिगत जनगणना कराने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया। जिसका सत्तारूढ़ और विपक्ष सभी पार्टियों ने जमकर स्वागत किया है मगर अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या जातिगत जनगणना होने के बाद इस पर अमल करना आसान होगा, इस पर कानूनीविद और सामाजिक विशेषज्ञ कतई इत्तेफाक नहीं रखते। केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कैबिनेट बैठक के बाद स्पष्ट किया कि आगामी जनगणना में सभी जातियों की गणना शामिल की जाएगी। उन्होंने कहा कि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत जनगणना केंद्रीय विषय है (आर्टिकल 246, सेंचुरी लिस्ट 69), इसलिए केवल केंद्र सरकार ही देशव्यापी जनगणना करवा सकती है। वैष्णव ने यह भी बताया कि कई राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण किए हैं, लेकिन उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में रही है।केंद्र की इस पहल से जातिगत आंकड़ों में पारदर्शिता सुनिश्चित होगी, बजाए इसके कि राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित राज्य स्तर के सर्वे पर भरोसा किया जाए। प्रशासनिक दृष्टि से, यह फैसला अफिस ऑफ रजिस्ट्रार जनरल एवं जनगणना आयुक्त (भारत) के नेतृत्व में लागू होगा, जो गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत है। जनगणना अधिनियम, 1948 की विधिक शक्ति के अंतर्गत यह आयोजन किया जाएगा। यानी कानूनी रूप से कोई राज्य अलग से जातिगत गणना नहीं कर सकता। आगामी जनगणना की समयसीमा की घोषणा नहीं की गई है, लेकिन यह नई लोकगणना 2021 की लम्बित कार्रवाइयों के बाद 2025–26 के बीच पूरे देश में होने की संभावना है। आइये इसे विस्तार से समझते हैं। जातिगत जनगणना का मुद्दा ब्रिटिश काल से ही भारत की राजनीति में उठता रहा है। ब्रिटिश शासन में 1881 से 1931 तक हर दस साल पर पूरी जनगणना में जाति के आंकड़े लिए गए थे। स्वतंत्रता के बाद 1951 की पहली जनगणना से ही अनुसूचित जाति/जनजाति के अतिरिक्त अन्य जाति-सूची बंद कर दी गई। 1961 में केंद्र सरकार ने राज्यों को यह अनुमति दी कि वे अपनी तरफ से पिछड़ी जातियों की सूची बना सकते हैं। जाने-माने मंडल आयोग (1979-80) ने पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 52% मानी थी। मंडल आयोग ने न केवल 27% ओ बी सी आरक्षण की सिफारिश की, बल्कि पूरे देश में जातिगत जनगणना की आवश्यकता भी रेखांकित की। बाद में वि.पी. सिंह सरकार (1990) ने मंडल आयोग की आरक्षण संबंधी सिफारिशें लागू कीं, लेकिन वास्तविक जातिगत जनगणना नहीं कराई गई। 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकसभा में इसे कैबिनेट में लाने का आश्वासन दिया था, पर फिर भी तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे मूर्त रूप देने की बजाय केवल सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना 2011 कराने तक सीमित रखा।उस समय जुटाए गए जातिगत आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।पिछले दशक में कई राज्यों ने अपना-अपना जाति सर्वेक्षण किया। विशेषकर बिहार सरकार ने 2022–23 में दो चरणों में घर-घर सर्वे कराए, जिनमें ओबीसी+ईबीसी आबादी 63% बताई गई (36% ईबीसी, 27.13% ओबीसी)। इसी प्रकार केरल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी जातीय सर्वे हुए। इन सर्वेक्षणों का उद्देश्य स्थानीय आरक्षण नीतियों के लिए डेटा जुटाना था, लेकिन केन्द्र सरकार ने इन्हें औपचारिक राष्ट्रीय जनगणना नहीं माना। कांग्रेस और कुछ वामपंथी दलों ने बार-बार देशव्यापी जातिगत जनगणना की मांग की है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे “भारत का सामाजिक एक्स-रे” कहा और लोकसभा में दलीय घोषणापत्र में 50% आरक्षण सीमा हटाने व व्यापक जाति जनगणना करने का वादा किया। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2024 के बजट में यह ऐलान किया था कि आगामी जनगणना में जातिगत गणना शामिल होगी. कांग्रेस-इंडिया गठबंधन ने इस मुद्दे को चुनावी अहमियत दी; वहीं बीजेपी की ओर से इस कदम को सामाजिक समानता का समर्थन बताया जा रहा है। इतिहास और मंडल आयोग की सिफारिशों से लेकर बीते दशकों तक, जातिगत जनगणना पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही है, लेकिन अब केंद्र ने इसे कारगर नीति बनाने की पहल की है। इस पर राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं। भाजपा एवं राष्ट्रीय नेतृत्व: गृह मंत्री अमित शाह ने इसे “सामाजिक समानता के लिए बड़ा कदम” बताया और कहा कि दशकों तक कांग्रेस सरकारें इसका विरोध करती रहीं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता कमलनाथ ने दावा किया कि राहुल गांधी ने यह मांग सबसे पहले उठाई थी और केंद्र सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी।बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (जदयू प्रमुख) ने केंद्र के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि जातिगत जनगणना हमारी पुरानी मांग थी और इससे योजनाओं के क्रियान्वयन में मदद मिलेगी। राजद नेता लालू प्रसाद यादव ने केंद्र के फैसले को “समाजवादियों की 30 साल पुरानी सोच की जीत” बताया। यह भी सच है कि इसका असर बिहार विधानसभा चुनावों पर यकीनन पड़ेगा। चुनावी विश्लेषकों के अनुसार, इस फैसले से सबसे पहले कांग्रेस एवं राजद जैसे विपक्षी दलों का एक बड़ा चुनावी मुद्दा छिन गया है। अब भाजपा इसके ज़रिए अपना अभियान चलाएगी।इससे वोट बैंक समीकरण भी बदल सकते हैं। बिहार में ओबीसी/ईबीसी की जनसंख्या बहुल है (लगभग 63%), इसलिए इस निर्णय से पिछड़ों की आशाओं को बल मिलेगा। आरक्षण दर बढ़ाने की मांग तेज हो सकती है। यह भी सच है कि जातिगत जनगणना कराने का ऐतिहासिक फैसला लेना तो आसान मगर इस पर अमल करना उतना ही मुश्किल है।सबसे बड़ा सवाल है कि आँकड़े कितनी विश्वसनीयता से जुटाए जाएंगे। सरकारी स्तर पर जातियों की सूची बहुत लंबी और जटिल है – (1931 में ही 4,147 जातियाँ दर्ज थीं) – ऐसी जटिल सूची के तहत सटीक गणना में मानवीय त्रुटि की आशंका रहेगी। नीति विशेषज्ञ याद दिला रहे हैं कि “पहली बार बाद में जाति के आंकड़े इकट्ठा किए गए थे, लेकिन प्रकाशित नहीं किए गए”। इसलिए इस बार डेटा की पारदर्शिता और सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा। इसमें न्यायिक चुनौतियाँ भी है। मौजूदा कानून में पिछड़ों को 50% आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट ने तय की है। यदि नए आंकड़े पिछड़ों की आबादी को औसत से अधिक दिखाते हैं, तो 50% सीमा बढ़ाने की मांग होगी – जिसे लागू करने पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक लग सकती है। दूसरी ओर, उच्च जातियों का भी विरोध रहेगा, क्योंकि आरक्षण की नई दर में उनकी हिस्सेदारी घट सकती है। प्रशासनिक तौर पर भी कार्यभार बहुत होगा। जनगणना 2021 अब तक लटकी हुई है; उसमें जाति जोड़ने की तैयारी में समय लगेगा। केंद्रीय जनगणना अधिकारियों को एकीकृत रूप से पूरे देश में प्रश्नावली बनानी होगी, प्रशिक्षित गणक तैयार करने होंगे और डेटा की सुरक्षित प्रक्रिया सुनिश्चित करनी होगी। अंत में कह सकते हैं कि यह जाति आधारित आरक्षण नीति और सामाजिक कल्याण योजनाओं को ज्यादा आंकड़ों पर आधारित बनाने में सहायक हो सकता है, लेकिन साथ ही सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों में तीव्र बदलाव और कानूनी-प्रशासनिक चुनौतियाँ भी लेकर आएगा।