भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर वित्तीय कदाचार के आरोपों के बाद केंद्र सरकार द्वारा महाभियोग प्रस्ताव पर विचार, भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व की वास्तविकता और प्रभावशीलता को लेकर एक नई बहस को जन्म देता है। यह मामला न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह न्यायपालिका की आंतरिक पारदर्शिता, जवाबदेही और स्व-नियमन के तंत्र की सीमा रेखा भी स्पष्ट करता है।आइये समझते हैं भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व की वर्तमान व्यवस्था के बारे में। भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने हेतु "न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968" लागू है। इसमें किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के लिये 100 लोकसभा या 50 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। इसके बाद एक जांच समिति दोष सिद्ध होने पर संसद में दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदन प्राप्त करती है।
हालांकि, अब तक इस प्रक्रिया में प्रभावशीलता का अभाव दिखा है। 1993 में जस्टिस वी. रामास्वामी के मामले में यह प्रक्रिया अधूरी रह गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक तंत्र बनाया है, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश या संबंधित उच्च न्यायालय के सी जे आई शिकायतों की प्रारंभिक जांच करते हैं। यदि शिकायत उचित पाई जाए, तो एक आंतरिक समिति इसकी विस्तृत जांच करती है। परंतु, इसमें पारदर्शिता और कानूनी अधिकार की कमी है। न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010 (विफल प्रयास) विधेयक का उद्देश्य न्यायिक आचरण पर निगरानी रखने के लिये एक स्वतंत्र निकाय "राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति" की स्थापना करना था। यह विधेयक लोकसभा में पारित हुआ, पर राज्यसभा में अटक गया। वर्तमान में न्यायाधीशों के आचरण पर निगरानी हेतु कोई स्वतंत्र वैधानिक निकाय नहीं है। अधिकांश मामलों में न्यायाधीशों का त्यागपत्र या आंतरिक जाँच ही अंतिम उपाय बन जाता है, जिससे पारदर्शिता की कमी बनी रहती है। न्यायिक उत्तरदायित्व की अनिवार्यता के कारणों की बात करें तो अत्यधिक स्वतंत्रता के कारण न्यायपालिका बाह्य जाँच से प्रायः बच जाती है। इसीलिए जब गंभीर आरोप भी लगे हों, तब भी बाहरी हस्तक्षेप नहीं होता, जिससे "दंड से छूट" की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव नियुक्तियों पर सवाल खड़े करता है। इससे वंशवाद और पक्षपात की आशंका भी प्रबल होती है।ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देश न्यायिक पारदर्शिता में सुधार लाकर स्वतंत्र निरीक्षण निकाय स्थापित कर चुके हैं, जबकि भारत इस दिशा में पिछड़ रहा है। कुछ मामलों में न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती दिखाई देती है, जिससे उसकी जवाबदेही पर प्रश्न उठते हैं। आइये देखते हैं इस पूरे प्रकरण में चुनौतियाँ और संभावित जोखिमों को। यदि उत्तरदायित्व का ढांचा राजनीतिक हस्तक्षेप से युक्त हो, तो यह न्यायिक निष्पक्षता को कमजोर कर सकता है। हाल ही में लोकपाल द्वारा न्यायाधीशों को अपने अधिकार क्षेत्र में लाने के प्रयास इसी बहस का हिस्सा रहे हैं।महाभियोग जैसे तंत्र राजनीतिक दलों की रणनीति का शिकार हो सकते हैं। जैसे कि 1993 में जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ प्रस्ताव लोकसभा में राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति के चलते विफल हो गया था। अगर न्यायाधीशों के खिलाफ बार-बार जाँच या आरोप लगते हैं, तो इससे आमजन में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और निष्पक्षता पर प्रभाव पड़ सकता है।भिन्न-भिन्न अदालतों में न्यायिक कदाचार से निपटने के अलग-अलग तरीके हैं। इससे निष्पक्षता और पारदर्शिता की भावना को चोट पहुँचती है। संभावित समाधान और सुधार के उपाय भी हैं। एक वैधानिक संस्था—"राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति"—जिसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीश, विधि विशेषज्ञ और बाहरी प्रतिष्ठित व्यक्ति हों, न्यायिक आचरण पर निगरानी रखे। सभी न्यायाधीशों को अपनी और अपने परिजनों की परिसंपत्तियों का वार्षिक खुलासा करना अनिवार्य किया जाए। इससे न्यायपालिका पर विश्वास बढ़ेगा।समीक्षा प्रक्रिया को तेज, पारदर्शी और समयबद्ध बनाया जाए। साथ ही जांच के दौरान मीडिया और जनता को सूचित किया जाए।इन-हाउस प्रक्रिया के तहत की गई जाँच के निष्कर्षों को सार्वजनिक किया जाए ताकि निष्पक्षता सिद्ध हो सके।एक व्यापक आचार संहिता, जिसे एक स्वतंत्र संस्था लागू करे, न्यायाधीशों के आचरण हेतु सुसंगत मानक निर्धारित करेगी।न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली, निर्णयों की गुणवत्ता, और नैतिक आचरण की नियमित समीक्षा आवश्यक है, जिससे सुधार की संभावनाएँ बनी रहें।जिन कर्मचारियों या हितधारकों को न्यायिक कदाचार की जानकारी हो, उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए ताकि वे स्वतंत्र रूप से अपनी बात रख सकें। अंत में कह सकते हैं कि भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व को लेकर वर्तमान तंत्र सीमित, अपारदर्शी और राजनीतिक रूप से प्रभावित रहा है। स्वतंत्र निगरानी निकाय, पारदर्शी परिसंपत्ति घोषणा और न्यायिक कार्यप्रणाली की नियमित समीक्षा जैसे ठोस सुधार अब समय की मांग हैं। ये न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखेंगे, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा—जनता के विश्वास—को भी मजबूत बनाएंगे। जैसा कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था:“सच्ची न्यायिक स्वतंत्रता किसी गलत आचरण को ढकने का आवरण नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की पूर्ति का माध्यम है।”