भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत में चुनाव आयोग को संवैधानिक संस्था का दर्जा प्राप्त है, जो देश में स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी है। लेकिन हाल के वर्षों में इसकी स्वायत्तता, निष्पक्षता और कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। आरोप लगते रहे हैं कि आयोग राजनीतिक दबाव में काम कर रहा है, जिससे न केवल इसकी साख पर असर पड़ा है, बल्कि संसदीय लोकतंत्र की नींव भी कमजोर होती दिखाई दे रही है। चुनाव आयोग का दायित्व केवल चुनाव कराना भर नहीं है, बल्कि एक समान मैदान तैयार करना भी है जहां सभी राजनीतिक दल समान अवसरों के साथ चुनाव लड़ सकें। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर कार्रवाई करने में आयोग की भूमिका अक्सर पक्षपातपूर्ण दिखी है। सत्ता पक्ष के नेताओं के भाषणों पर नरमी और विपक्ष के खिलाफ कठोर कार्रवाई की प्रवृत्ति इसकी निष्पक्षता पर संदेह पैदा करती है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में रही है। सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में स्पष्ट किया कि केवल प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। न्यायालय ने एक नई समिति बनाने का निर्देश दिया, जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश शामिल हों। यह आदेश चुनाव आयोग की निष्पक्षता को बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया। हालांकि, बाद में केंद्र सरकार ने इस व्यवस्था को दरकिनार करते हुए एक नया कानून पास किया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश की जगह एक केंद्रीय मंत्री को समिति में शामिल किया गया, जिससे न्यायिक संतुलन कमजोर हुआ। पिछले कुछ चुनावों में ईवीएम की विश्वसनीयता, मतदाता सूची में विसंगतियां, और चुनाव की तारीखों की घोषणा में पक्षपात जैसे आरोप आयोग की साख को और कमजोर करते हैं। हाल ही में कुछ राज्यों में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा इस प्रकार की गई कि उससे सत्ताधारी दल को प्रचार में अनावश्यक बढ़त मिली। यह स्थिति आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करती है। यह सच है कि भारत का संसदीय लोकतंत्र चुनाव आयोग जैसे संस्थानों की मजबूती पर टिका हुआ है। यदि यह संस्था कमजोर पड़ती है या उस पर जनता का विश्वास डगमगाता है, तो इसका असर लोकतंत्र की बुनियादी संरचना पर पड़ेगा। जब मतदाता यह मानने लगते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हो रहे, तो उनके मतदान का उत्साह और लोकतांत्रिक भागीदारी दोनों प्रभावित होते हैं। यह स्थिति लोकतांत्रिक पतन की शुरुआत बन सकती है। चुनाव आयोग को स्वतंत्र और पारदर्शी बनाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाना समय की मांग है: नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार: चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह निष्पक्ष समिति द्वारा की जाए, जिसमें राजनीतिक और न्यायिक संतुलन हो। कानूनी अधिकारों को सशक्त बनाना: आयोग को ऐसा अधिकार दिया जाए जिससे वह आचार संहिता उल्लंघन पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई कर सके। तकनीकी पारदर्शिता: ईवीएम और वीवीपैट की पारदर्शिता बढ़ाने के लिए स्वतंत्र ऑडिट की व्यवस्था हो। नागरिक सहभागिता बढ़े: चुनाव प्रक्रिया में जनभागीदारी और विश्वास बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियानों को गति दी जाए। चुनाव आयोग की मौजूदा स्थिति भारत के लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चेतावनी है। यदि इसे समय रहते दुरुस्त नहीं किया गया, तो देश में लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं केवल औपचारिकता बनकर रह जाएंगी। लोकतंत्र की आत्मा तभी जीवित रह सकती है, जब उसकी प्रहरी संस्थाएं निष्पक्ष, निर्भीक और जनहितकारी बनी रहें।