भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
यह बात सौलह आने सच है कि भारत में समावेशी शिक्षा व्यवस्था को मजबूती देने की दिशा में उठाए जा रहे कदमों के बीच एक चिंताजनक तथ्य सामने आया है। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में संसद में सांझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग के 80%, अनुसूचित जाति (एससी) के 64% और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के 83% आरक्षित प्रोफेसर पद अब तक खाली पड़े हैं। हालांकि यह स्थिति उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय की चुनौतियों को उजागर करती है, वहीं इसके समाधान के प्रयास भी समानांतर रूप से सामने आ रहे हैं। इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत का उच्च शिक्षा तंत्र लंबे समय से समावेशिता की दिशा में संघर्ष करता रहा है। प्रोफेसर और उच्च शिक्षण पदों पर ओबीसी, एससी और एसटी वर्गों की अपर्याप्त भागीदारी इस असंतुलन का स्पष्ट संकेत है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित पदों का खाली रहना केवल आंकड़ों की बात नहीं, बल्कि यह इन वर्गों के अकादमिक प्रतिनिधित्व में गहरी कमी को दर्शाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह स्थिति प्रणालीगत चुनौतियों जैसे भर्ती प्रक्रिया में देरी, योग्य उम्मीदवारों की पहचान की प्रक्रिया में कठिनाई, और संस्थानों की जवाबदेही की कमी से जुड़ी है। साथ ही कई विश्वविद्यालयों में आरक्षण नीति के सही क्रियान्वयन में भी अस्पष्टता रही है। यह भी सच है कि हालांकि स्थिति चिंताजनक है, लेकिन केंद्र सरकार ने इस दिशा में सुधारात्मक कदम उठाने के संकेत दिए हैं। शिक्षा मंत्रालय के अनुसार, विश्वविद्यालयों को सख्त निर्देश दिए गए हैं कि वे आरक्षित पदों को शीघ्र भरने की दिशा में सक्रियता दिखाएं। साथ ही 'मिशन मोड भर्ती अभियान' जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से लंबित पदों की भरती प्रक्रिया को गति देने की कोशिश की जा रही है। इसके अलावा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी यह सुनिश्चित करने में जुटा है कि आरक्षण नीति का पालन पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ हो। कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों में विशेष भर्ती अभियान भी शुरू किए गए हैं जिनमें ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग के योग्य शिक्षाविदों को आमंत्रित किया जा रहा है। आरक्षित वर्गों के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खोलने मात्र से प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ेगा, बल्कि आवश्यक है कि स्कॉलरशिप, रिसर्च फंडिंग, फैकल्टी डिवेलपमेंट प्रोग्राम जैसे साधनों के माध्यम से इन वर्गों को शिक्षाविदों के रूप में सशक्त किया जाए। नेशनल रिसर्च फेलोशिप और पीएचडी गाइडेंस स्कीम्स में प्राथमिकता देने की पहल इस दिशा में कारगर हो सकती है। इसी के साथ साथ यह भी जरूरी है कि विश्वविद्यालय परिसरों में एक समावेशी और अनुकूल शैक्षणिक माहौल सुनिश्चित किया जाए, ताकि दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों के प्रोफेसरों को स्थायी, प्रेरणादायक और सम्मानजनक वातावरण मिले। यद्यपि आंकड़े असंतुलन की ओर इशारा करते हैं, लेकिन इस स्थिति को सुधारने की राजनीतिक और संस्थागत इच्छाशक्ति धीरे-धीरे मजबूत होती दिखाई दे रही है। यदि सरकार, शिक्षण संस्थान और समाज मिलकर कार्य करें, तो इन वर्गों का प्रतिनिधित्व न केवल बढ़ेगा, बल्कि इससे भारतीय उच्च शिक्षा अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और विविधतापूर्ण बन सकेगी। संभावना स्पष्ट है कि अगर नीति-निर्माता, अकादमिक जगत और समाज एकजुट होकर आगे बढ़ें, तो यह असंतुलन भी अवसर में बदल सकता है।