भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा पर लगे कथित कैश कांड के आरोपों के बाद अब उन्हें पद से हटाने की औपचारिक प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। लोकसभा में 145 और राज्यसभा में 63 सांसदों ने संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया है। यह पहली बार नहीं है जब किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ इस तरह की गंभीर कार्रवाई शुरू हुई हो, लेकिन इस प्रकरण ने न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। सूत्रों के अनुसार, जस्टिस वर्मा पर करोड़ों रुपये की रिश्वत लेने और न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के गंभीर आरोप हैं। जांच एजेंसियों के हाथ लगे कुछ डिजिटल साक्ष्यों और बैंकिंग ट्रांजेक्शनों ने इस मामले को और गम्भीर बना दिया है। हालांकि वर्मा ने इन आरोपों को निराधार बताया है और फिलहाल छुट्टी पर चले गए हैं, लेकिन देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था यानी संसद ने इस पर गंभीरता दिखाई है। आइये जानें कि आखिर महाभियोग प्रक्रिया क्या होती है। भारत में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को केवल महाभियोग के जरिये ही हटाया जा सकता है। यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है, जिसमें दोनों सदनों—लोकसभा और राज्यसभा—में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया के तहत सबसे पहले सांसदों की ओर से नोटिस दिया जाता है। इसके बाद स्पीकर और राज्यसभा के सभापति इसे जांच समिति को सौंपते हैं। यदि समिति आरोपों की पुष्टि करती है, तब संसद में मतदान होता है। अगर दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित होता है, तब राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी करते हैं। इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी राय जाहिर की है। विपक्ष ने कहा कि यह "न्यायपालिका में गहराई तक फैले भ्रष्टाचार का चिंताजनक संकेत" है। वहीं, सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि वह प्रक्रिया के अनुसार कार्रवाई करेगी और न्यायपालिका की गरिमा को बनाए रखना सर्वोपरि है। कई कानूनी विशेषज्ञों ने यह भी तर्क दिया है कि न्यायाधीशों की जवाबदेही तय करने के लिए महज महाभियोग काफी नहीं है। एक स्वतंत्र निगरानी संस्था, समयबद्ध जांच, और न्यायपालिका के भीतर आंतरिक अनुशासन प्रक्रिया की आवश्यकता अब और अधिक महसूस की जा रही है। अगर हम भविष्य में उक्त घटनाओं पर काबू पाने की बात करें तो इस घटना ने एक बार फिर न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग को तेज कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं से बचने के लिए निम्नलिखित कदम जरूरी हैं: न्यायिक आचरण संहिता को सख्ती से लागू किया जाए, न्यायाधीशों की संपत्ति की नियमित घोषणा अनिवार्य की जाए, न्यायपालिका में स्वतंत्र अनुशासन समिति का गठन हो, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता बढ़ाई जाए, व्हीसल ब्लोअर सुरक्षा कानून को न्यायिक संस्थानों में भी लागू किया जाए। अंत में कह सकते हैं कि जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ शुरू हुई महाभियोग प्रक्रिया भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में न्यायपालिका की शुचिता और स्वायत्तता को बनाए रखने की दिशा में एक अहम कदम है। लेकिन यह केवल एक शुरुआत है। जब तक न्यायिक व्यवस्था में संरचनात्मक सुधार नहीं होते, तब तक ऐसे मामले सामने आते रहेंगे। ज़रूरत है कड़े नियमों, पारदर्शी प्रणाली और राजनीतिक इच्छाशक्ति की—ताकि न्याय का मंदिर वाकई निष्कलंक और निष्पक्ष बना रहे।