भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
यह सच है कि हाल ही में सामने आए "ऑपरेशन सिंदूर" के खुलासे ने राजनीतिक गलियारों में तीखी बहस को जन्म दे दिया है। यह एक अत्यंत संवेदनशील सैन्य ऑपरेशन था, जिसे गोपनीयता और रणनीतिक विवेक से अंजाम दिया गया। लेकिन अब जब इसकी जानकारी सार्वजनिक हुई है, तो विपक्षी दलों द्वारा संसद के भीतर और बाहर इस पर सवाल खड़े करना कई स्तरों पर चिंताजनक प्रतीत होता है। ऑपरेशन सिंदूर, जैसा कि अब तक सामने आया है, एक सीमावर्ती कार्रवाई थी जिसका उद्देश्य भारत की सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा करना था। ऐसे में विपक्ष का यह जानना उचित है कि कहीं भारत को रणनीतिक या मानवीय नुकसान तो नहीं हुआ। लेकिन इस प्रक्रिया में जिस तरह से तीखे राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं, उससे यह सवाल उठता है कि क्या देशहित और सैन्य गोपनीयता को ताक पर रखा जा रहा है? इस में कोई दो राय नहीं है कि लोकतंत्र में सवाल पूछना अधिकार है, लेकिन संयम आवश्यक है। लोकतंत्र में सवाल पूछना विपक्ष का अधिकार है, बल्कि कर्तव्य भी। लेकिन सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मामलों में एक सीमित दृष्टिकोण अपनाना जरूरी होता है। यदि सैन्य अभियान की गोपनीयता भंग की जाती है या अनावश्यक रूप से दबाव बनाया जाता है, तो इससे न केवल सैनिकों के मनोबल पर असर पड़ सकता है, बल्कि रणनीतिक सूचनाएं दुश्मनों के हाथ भी लग सकती हैं। विपक्ष का आरोप है कि इस ऑपरेशन की टाइमिंग संदेहास्पद है और यह सत्तारूढ़ दल द्वारा राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास हो सकता है। लेकिन क्या हम यह मान लें कि हर सैन्य कार्रवाई सिर्फ चुनावी गणनाओं से प्रेरित होती है? यदि ऐसा है तो यह सोच देश की सुरक्षा एजेंसियों और सेना के पेशेवर रवैये पर भी सवाल खड़ा करता है। ऐसे आरोप लगाने से पहले प्रमाण और विवेक दोनों जरूरी हैं। वहीं सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस ऑपरेशन को लेकर तथ्यात्मक जानकारी संसद और जनता के समक्ष रखे—बिना गोपनीय रणनीति का खुलासा किए। यदि भारत को वाकई कोई नुकसान हुआ है, चाहे वो मानव संसाधन हो या कूटनीतिक, तो उस पर स्पष्टता लाना जरूरी है ताकि अविश्वास की राजनीति को रोका जा सके। दूसरी ओर संवेदनशील मुद्दों पर राजनीतिक आम सहमति की जरूरत होती है। देशहित के मुद्दों पर राजनीतिक दलों को एकमत होकर काम करना चाहिए। यदि विपक्ष को संदेह है, तो उसे बंद कमरे में संसदीय समिति के समक्ष तथ्यों की मांग करनी चाहिए, न कि सार्वजनिक मंचों पर सेना और रणनीतियों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। इससे न केवल देश की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित होती है, बल्कि दुश्मन ताकतों को भी लाभ मिल सकता है। अंत में कह सकते हैं कि ऑपरेशन सिंदूर के मसले पर विपक्ष की चिंता अपनी जगह वाजिब हो सकती है, लेकिन उसे अभिव्यक्ति के तरीके और मंच का चयन सोच-समझकर करना चाहिए। देशहित और राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीतिक गणनाओं से ऊपर रखना ही सच्ची देशभक्ति और जिम्मेदार विपक्ष का परिचायक है। राजनीति को सेना की रणनीति से अलग रखना समय की मांग है।