भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
खनन भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। लोहे, कोयले, पत्थरों और खनिजों पर ही उद्योग और निर्माण निर्भर करते हैं। लेकिन इस विकास की असली बुनियाद—मजदूर जो आज असुरक्षित और उपेक्षित हैं। खदानों और कंस्ट्रक्शन साइट्स पर काम करने वाले हजारों-लाखों श्रमिक एक ऐसी बीमारी से जूझ रहे हैं, जो धीरे-धीरे उनकी सांसें छीन रही है। यह है सिलिकोसिस, जिसे दुनिया भर में ‘साइलेंट किलर’ कहा जाता है। सिलिकोसिस फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी है, जो लंबे समय तक धूल और सिलिका कणों के संपर्क में आने से होती है। पत्थर तोड़ने, ड्रिलिंग करने या आटा मिल, सिरेमिक और पोटरी जैसे उद्योगों में काम करने वाले सबसे ज्यादा इसके शिकार होते हैं। शुरुआत में यह साधारण खांसी या सांस फूलने जैसा लगता है, मगर धीरे-धीरे फेफड़ों की क्षमता घटती जाती है। अंततः मजदूर सामान्य सांस लेने तक के लिए जूझता है। चिकित्सा विज्ञान अब तक इसका पूर्ण इलाज खोज नहीं पाया। यही वजह है कि एक बार बीमारी पकड़ लेने के बाद मजदूर जिंदगी भर तिल-तिल कर जीते हैं। गौरतलब है कि भारत के कई खनन प्रधान राज्यों में सिलिकोसिस महामारी जैसी स्थिति ले चुकी है। राजस्थान: वर्तमान में 17,000 से अधिक प्रमाणित मरीज। अनुमान है कि 8,000–10,000 और पीड़ित ऑनलाइन पोर्टल पर दर्ज ही नहीं हैं। 2015–17 के बीच सिर्फ पांच जिलों में 7,959 नए मामले और 449 मौतें हुईं। मध्य प्रदेश: 2014–15 में 1,721 मजदूर सिलिकोसिस के शिकार पाए गए, जिनमें से 589 की मौत हो चुकी थी। गुजरात: अगेट उद्योग में 18–69% श्रमिक सिलिकोसिस से पीड़ित। पत्थर पीसने वालों में 14–18% और पॉटरी उद्योग में 15% तक दर। मोरबी के सिरेमिक उद्योग में भी बड़ी संख्या में मजदूर प्रभावित, लेकिन पी एफ और ई एस आई जैसे सुरक्षा लाभ से वंचित। हरियाणा: खनन मजदूरों में संक्रमण दर 9% तक। दिल्ली और मुंबई: आयुध निर्माण कारखानों में 3.5% और आटा मिलों में 30% मजदूर प्रभावित। ये आंकड़े सिर्फ रिपोर्टेड केस हैं। असल स्थिति इससे कहीं ज्यादा भयावह है। अब ये आंकड़े खासे बढ़ चुके हैं। भारत में फैक्ट्री अधिनियम और खनन अधिनियम जैसे कानून स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मजदूरों को सुरक्षा उपकरण, मास्क, धूल नियंत्रण मशीनें और समय-समय पर स्वास्थ्य जांच मिलनी चाहिए। लेकिन वास्तविकता उलट है। छोटे और मध्यम स्तर की खदानों में सुरक्षा उपाय सिर्फ दिखावा हैं। न मशीनें, न मास्क, न ही नियमित जांच। ठेकेदार और कंपनियां केवल उत्पादन और मुनाफे पर ध्यान देती हैं। मजदूरों की जिंदगी उनके लिए बस खर्च होने वाला साधन है। सिलिकोसिस सिर्फ मजदूर की बीमारी नहीं, बल्कि पूरे परिवार का संकट है। एक बार जब मजदूर काम करने लायक नहीं रहता तो आय का स्रोत खत्म हो जाता है। इलाज महंगा है, जिससे परिवार कर्ज में डूब जाता है। बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है और गरीबी का दुष्चक्र और गहरा होता जाता है। आर्थिक मोर्चे पर इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर भी है। लाखों मजदूर समय से पहले ही कार्य क्षमता खो देते हैं। इससे श्रमशक्ति घटती है और उत्पादन क्षमता पर चोट पड़ती है। यह केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए भी बड़ा खतरा है। भारत सरकार और कई राज्य सरकारों ने सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए योजनाएं शुरू की हैं। राजस्थान ने पीड़ितों के लिए पेंशन, मुआवजा और उपचार की सुविधा दी है। कुछ राज्यों ने स्क्रीनिंग और पोर्टल आधारित पंजीकरण प्रणाली बनाई है। मगर ये प्रयास बिखरे और सीमित हैं। न तो पूरे देश में एक समान नीति है और न ही सख्त निगरानी। नतीजा यह कि मजदूरों तक राहत पहुंचने में भारी देरी होती है। अब बात करते हैं कि इस समस्या के निबटारे के लिए क्या करना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य स्क्रीनिंग: खनन और कंस्ट्रक्शन सेक्टर के मजदूरों की नियमित जांच अनिवार्य हो। कंपनियों पर सख्ती: धूल नियंत्रण तकनीक, मास्क और सुरक्षा उपकरण हर साइट पर उपलब्ध हों। मुआवजा और मुफ्त इलाज: पहले से पीड़ित मजदूरों को पेंशन, मुफ्त इलाज और उनके परिवार को आर्थिक सहायता मिले। जागरूकता अभियान: मजदूरों को शुरुआती लक्षणों और बचाव के उपायों के बारे में जागरूक किया जाए। राष्ट्रीय कार्ययोजना: केंद्र और राज्य मिलकर एक व्यापक योजना बनाएं, जिसमें रोकथाम, इलाज और पुनर्वास तीनों शामिल हों। अंत में कह सकते हैं कि खनन और निर्माण भारत के विकास के लिए जरूरी हैं। लेकिन यह विकास अधूरा है अगर इसकी नींव रखने वाले मजदूर ही अपनी जान गंवा दें। सिलिकोसिस को अब “गरीबों की बीमारी” कहकर नजरअंदाज करना नीतिगत अपराध है। जरूरत है कि सरकारें इसे सिर्फ स्वास्थ्य मुद्दा न मानकर राष्ट्रीय संकट समझें। मजदूरों का स्वास्थ्य बचाना मानवीय जिम्मेदारी ही नहीं, बल्कि सतत विकास की बुनियादी शर्त भी है। अगर आज ठोस कदम नहीं उठाए गए तो कल खनन क्षेत्र और लाखों परिवारों के लिए यह बीमारी महाविनाश साबित होगी। विकास की असली कीमत मजदूरों की जान नहीं होनी चाहिए।