भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
दक्षिण एशिया के कई देशों में हाल के वर्षों में युवाओं का गुस्सा सड़क पर उतर कर साफ़ दिखाई दे रहा है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका से लेकर श्रीलंका के कोलंबो और नेपाल के काठमांडू तक, युवा प्रदर्शन, रैलियों और सोशल मीडिया अभियानों के ज़रिए अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर पड़ोसी मुल्कों के युवा इतने नाराज़ क्यों हैं और यह आक्रोश किस दिशा में ले जा सकता है? बांग्लादेश की बात करें तो बांग्लादेश लंबे समय से अपनी तेज़ आर्थिक वृद्धि के लिए चर्चा में रहा, लेकिन इस चमक के पीछे युवाओं की नाराज़गी छिपी हुई है। शिक्षा पूरी करने के बाद भी लाखों युवा बेरोजगार हैं। हाल ही में सरकारी नौकरियों में आरक्षण नीति को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध हुआ, जिसमें छात्रों और बेरोजगार युवाओं ने सरकार के खिलाफ नारे लगाए। युवाओं का मानना है कि राजनीतिक पार्टियों ने विकास के नाम पर केवल चुनिंदा वर्गों को लाभ पहुँचाया, जबकि नौकरी और बेहतर अवसर का सपना अधूरा रह गया। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और विपक्ष की आवाज़ को दबाने की कोशिशों ने युवाओं का आक्रोश और बढ़ा दिया है। सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड करना और सड़कों पर उतरना बांग्लादेशी युवाओं की नई ताक़त बन चुकी है।यही हाल श्रीलंका का है। पिछले कुछ वर्षों में देश जिस तरह आर्थिक संकट में घिरा, उसने युवा वर्ग के भविष्य को ही दांव पर लगा दिया। विदेशी कर्ज़ के बोझ और ईंधन-खाद्य संकट ने श्रीलंका को दिवालिया होने के कगार पर पहुँचा दिया। 2022 में जिस तरह हज़ारों युवाओं ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोला, वह इस बात का संकेत था कि अब नई पीढ़ी चुप नहीं बैठने वाली। महंगाई, नौकरी की कमी और राजनीतिक परिवारवाद ने युवाओं का भरोसा पूरी तरह तोड़ दिया है। "सिस्टम बदलो" की मांग श्रीलंकाई युवाओं के गुस्से की मुख्य धुरी बन चुकी है। नेपा में मौजूदा युवाओं का तांडव भी इस ओर इशारा कर रहा है। यहां लोकतंत्र स्थापित होने के बाद से ही राजनीतिक अस्थिरता जारी है। बार-बार बदलती सरकारें और नेताओं की खींचतान ने विकास की रफ्तार थाम दी है। युवाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रोज़गार की कमी। बड़ी संख्या में नेपाली युवा विदेशों में मज़दूरी करने के लिए पलायन कर रहे हैं। खाड़ी देशों और मलेशिया में काम करने वाले नेपाली मजदूरों का प्रतिशत चौंकाने वाला है। युवाओं का कहना है कि वे अपने देश में सम्मानजनक अवसर चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक वर्ग उन्हें यह मुहैया कराने में नाकाम रहा है। यही निराशा अब गुस्से में बदल रही है। अगर हम बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की परिस्थितियों को जोड़कर देखें, तो यह साफ़ नज़र आता है कि युवाओं का गुस्सा तीन बड़ी वजहों से उपजा है— रोज़गार और अवसरों की कमी, राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार, महंगाई और आर्थिक दबाव। इन देशों में युवाओं को लगता है कि उनके सपनों और मेहनत की कद्र नहीं हो रही। लोकतांत्रिक अधिकार मिलने के बावजूद उनकी आवाज़ को दबाने की कोशिश की जाती है। नेपाल में मौजूदा सोशल मीडिया को लेकर आक्रोश तो बहाना है यह गुबार लंबे अर्से से युवाओं के बीच भरा हुआ था जो अब निकल रहा है यही वजह है वे तख्ता पलट की बातें करने लगे हैं। गौरतलब है युवा का पहले जहां विरोध केवल सड़कों पर दिखता था, वहीं अब डिजिटल प्लेटफॉर्म युवाओं की सबसे बड़ी ताक़त बन गए हैं। फेसबुक, ट्विटर (अब X), इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे माध्यम इन की हताशा और गुस्से को वैश्विक मंच पर ला रहे हैं। यही वजह है कि बांग्लादेश के आंदोलन की खबरें श्रीलंका और नेपाल तक पहुँचती हैं और वहां के युवाओं को भी प्रेरित करती हैं। भारत, जो इन तीनों देशों का सीधा पड़ोसी है, को इस आक्रोश को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि युवा असंतोष अक्सर सीमा-पार प्रभाव डालता है। अगर पड़ोसी देशों में बेरोज़गार युवाओं की संख्या बढ़ेगी और अस्थिरता कायम रहेगी, तो इसका असर भारत पर भी पड़ेगा—चाहे वह अप्रवासन के रूप में हो या राजनीतिक तनाव के रूप में। भारत को अपनी "पड़ोस प्रथम नीति" के तहत इन देशों के साथ मिलकर शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास की पहल करनी चाहिए। यह न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को मज़बूत करेगा, बल्कि दक्षिण एशिया के युवाओं को भविष्य की बेहतर तस्वीर भी देगा। युवाओं का गुस्सा केवल नकारात्मक शक्ति नहीं है, यह बदलाव की एक संभावित ऊर्जा भी है। अगर सरकारें इस ऊर्जा को सही दिशा में मोड़ सकें, तो यही युवा अपने-अपने देशों के विकास का इंजन बन सकते हैं। शिक्षा और कौशल विकास पर निवेश, राजनीतिक पारदर्शिता और जवाबदेही और रोज़गार सृजन और उद्यमिता को बढ़ावा। ये कदम उस गुस्से को सकारात्मक दिशा में बदल सकते हैं, जो फिलहाल सड़कों पर दिख रहा है। अंत में कह सकते हैं कि बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के युवाओं का आक्रोश केवल स्थानीय राजनीति का मामला नहीं है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की चेतावनी है। बेरोज़गारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से जूझ रही युवा पीढ़ी अब चुप रहने को तैयार नहीं है। अगर इस गुस्से को अनसुना किया गया, तो यह अस्थिरता की जड़ें और गहरी करेगा। लेकिन अगर यही ऊर्जा सही नीतियों और अवसरों की ओर मोड़ दी जाए, तो यह क्षेत्र विकास और प्रगति की नई इबारत भी लिख सकता है।