भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां अंतरराष्ट्रीय राजनीति और वैश्विक अर्थव्यवस्था इन दिनों अस्थिरता और नई भू-रणनीतिक चालबाजियों से गुजर रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक संरक्षणवादी नीति ने वैश्विक व्यापार को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की है। चीन, भारत, रूस, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों का समूह ब्रिक्स इस चुनौती का सामना करने के लिए सामूहिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। सवाल यह है कि क्या ब्रिक्स अपनी आर्थिक, रणनीतिक और राजनीतिक मजबूती के बल पर ट्रंप की टैरिफ जंग का सफल मुकाबला कर पाएगा? आइये इसे समझते हैं चीन के तियानजिन सम्मेलन के जरिए। 31 अगस्त से 1 सितंबर 2025 को चीन के तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एस सी ओ) सम्मेलन ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत दिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मौजूदगी इस बात का प्रतीक बनी कि एशिया और उभरती अर्थव्यवस्थाएँ अब पश्चिमी नेतृत्व वाले मंचों के विकल्प खोज रही हैं। सम्मेलन के दौरान मोदी और शी ने यह संदेश दिया कि भारत और चीन प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि विकास साथी हैं। दोनों नेताओं ने सीमा विवाद को शांति से सुलझाने और रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने पर जोर दिया। यह पहल स्पष्ट करती है कि एशिया की दो बड़ी ताकतें अमेरिकी टैरिफ दबाव के बीच संतुलन साधने की कोशिश में हैं। राष्ट्रपति पुतिन ने भी इस मंच से कहा कि रूस और चीन “विभेदात्मक प्रतिबंधों” के खिलाफ एकजुट हैं। इससे साफ है कि एस सी ओ न केवल सुरक्षा सहयोग का मंच बन रहा है, बल्कि ब्रिक्स देशों के लिए एक वैकल्पिक समन्वय बिंदु के तौर पर भी उभर रहा है। याद रहे ट्रंप प्रशासन ने “अमेरिका फर्स्ट” नीति के तहत चीन, यूरोपियन यूनियन, मैक्सिको और यहां तक कि भारत जैसे देशों पर भी भारी टैरिफ लगाए। मकसद था अमेरिकी उद्योगों और नौकरियों की रक्षा, लेकिन वास्तविकता में इससे वैश्विक आपूर्ति शृंखला प्रभावित हुई और व्यापार युद्ध बढ़े। विशेषकर भारत को रूसी तेल खरीद पर 50% तक टैरिफ का सामना करना पड़ा। ऐसे हालात में एस सी ओ सम्मेलन ने अप्रत्यक्ष तौर पर अमेरिकी संरक्षणवाद को चुनौती देने का संकेत दिया। भारत भी अब जापान और यूरोप के साथ निवेश बढ़ाते हुए, चीन और रूस के साथ सामरिक सहयोग मजबूत कर “रणनीतिक संतुलन” साधने की नीति अपना रहा है। गौरतलब है कि ब्रिक्स आज दुनिया की लगभग 40% आबादी और 25% वैश्विक जीडीपी का प्रतिनिधित्व करता है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत तेजी से बढ़ती उपभोक्ता शक्ति और आईटी सेवाओं का केंद्र है। रूस ऊर्जा संसाधनों का प्रमुख निर्यातक है। ब्राज़ील कृषि और खनिज संपदा में समृद्ध है। दक्षिण अफ्रीका पूरे अफ्रीकी महाद्वीप का आर्थिक प्रवेश द्वार है। ये सभी देश मिलकर वैश्विक व्यापार संतुलन को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ट्रंप की टैरिफ नीतियों ने ब्रिक्स देशों को डॉलर पर निर्भरता कम करने की दिशा में सोचने को मजबूर किया। ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक और कॉन्टिजेंट रिजर्व अरेंजमेंट जैसे वैकल्पिक वित्तीय संस्थान बनाए हैं। रूस और चीन स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को प्रोत्साहन दे रहे हैं, वहीं भारत भी रुपया-रूबल और रुपया-युआन व्यापार की संभावनाओं पर काम कर रहा है। यदि यह पहल गति पकड़ती है तो डॉलर का वर्चस्व कम हो सकता है और अमेरिकी नीतियों का असर घट सकता है। अमेरिका पर निर्भरता कम करने का सबसे बड़ा हथियार ब्रिक्स देशों का आपसी व्यापार है। भारत और रूस ऊर्जा समझौतों को आगे बढ़ा रहे हैं।चीन ब्राज़ील से कृषि उत्पाद और खनिज आयात कर रहा है।दक्षिण अफ्रीका और भारत खनिज और औद्योगिक सहयोग पर काम कर रहे हैं।इस तरह का आंतरिक व्यापार अमेरिकी दबाव को स्वतः कम करेगा और ब्रिक्स को नई ऊँचाइयों तक ले जाएगा। ट्रंप प्रशासन ने हुवावे और अलीबाबा जैसी चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाकर “तकनीकी शीत युद्ध” छेड़ दिया। इसके जवाब में ब्रिक्स देशों के पास संयुक्त निवेश और अनुसंधान का रास्ता है। भारत की आईटी विशेषज्ञता, चीन की विनिर्माण क्षमता और रूस की रक्षा-तकनीकी ताकत एकजुट होकर नए तकनीकी इकोसिस्टम का निर्माण कर सकती है। यह सहयोग अमेरिकी तकनीकी दबदबे को चुनौती दे सकता है। ब्रिक्स केवल आर्थिक संगठन नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक संतुलन साधने वाला मंच बनता जा रहा है। जी7 और नाटो जैसे पश्चिमी मंचों के मुकाबले यह समूह ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनकर उभर रहा है। रूस और चीन अमेरिका को खुली चुनौती देते हैं, जबकि भारत जैसी शक्ति कूटनीतिक संतुलन बनाए रखकर बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को मजबूत कर रही है।यह सच है कि फिर भी, ब्रिक्स की राह आसान नहीं है। चीन और भारत के बीच सीमा विवाद सहयोग को कमजोर कर सकता है। ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक अस्थिरता सामूहिक एजेंडे को प्रभावित करती है। रूस पर पश्चिमी प्रतिबंध उसके वैश्विक व्यापार को सीमित करते हैं। इन बाधाओं को दूर किए बिना ब्रिक्स अपनी सामूहिक शक्ति का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। ट्रंप की टैरिफ नीतियां ब्रिक्स के लिए अवसर लेकर आई है। यदि ये देश आपसी सहयोग को गहरा करें, डॉलर निर्भरता घटाएँ और तकनीकी-व्यापारिक साझेदारी बढ़ाएँ, तो अमेरिकी नीतियों का असर सीमित हो जाएगा।