भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
आज की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में व्यापार, निवेश और वित्त केवल आर्थिक साधन नहीं रह गए हैं, बल्कि इन्हें तेजी से राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। बड़ी शक्तियाँ अपने रणनीतिक हितों की पूर्ति और विरोधियों पर दबाव बनाने के लिए आर्थिक औज़ारों का प्रयोग कर रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भारत जैसे उभरते हुए शक्ति केंद्र के लिए यह आवश्यक है कि वह हर कदम फूंक-फूंककर उठाए और अपने दीर्घकालिक आर्थिक हितों की रक्षा करे। पिछले दो दशकों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से उभरी है कि सैन्य बल की बजाय आर्थिक साधनों का इस्तेमाल ज्यादा प्रभावी साबित हो रहा है। अमेरिका ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ा, यूरोपीय संघ ने रूस पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, और चीन स्वयं ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ के माध्यम से निवेश को कूटनीतिक दबाव बनाने के औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। आज कोई भी देश केवल सैनिक ताकत से अपने हित सुरक्षित नहीं रख सकता। डॉलर की ताकत, निवेश का प्रवाह और सप्लाई चेन पर नियंत्रण वैश्विक भू-राजनीति को दिशा दे रहे हैं। ऐसे में भारत के सामने अवसर भी हैं और चुनौतियाँ भी। विश्व व्यापार संगठन की कमजोर होती भूमिका और संरक्षणवादी नीतियों के चलते बड़ी शक्तियाँ अब व्यापारिक नीतियों का इस्तेमाल एक-दूसरे पर दबाव बनाने के लिए कर रही हैं। अमेरिका और चीन की टकराहट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चीन ने दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर नियंत्रण कर दिखा दिया कि सप्लाई चेन पर पकड़ किसी भी देश की सामरिक ताकत बन सकती है। भारत के लिए यहाँ सावधानी जरूरी है। हाल ही में यूरोपीय संघ ने कार्बन टैक्स लगाने की घोषणा की, जिसका सीधा असर भारतीय निर्यात पर पड़ेगा। यदि भारत ने समय रहते अपनी ऊर्जा और उत्पादन प्रणाली को हरित मानकों पर नहीं ढाला, तो यह कर उसकी प्रतिस्पर्धा क्षमता को कमजोर कर देगा। निवेश अब विकास का साधन मात्र नहीं, बल्कि रणनीतिक दबाव का साधन भी बन चुका है। चीन ने एशिया और अफ्रीका में बड़े पैमाने पर निवेश करके आर्थिक निर्भरता पैदा की है। श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर चीन का नियंत्रण इस नीति की मिसाल है। भारत भी बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आकर्षित कर रहा है, लेकिन सवाल यह है कि कहीं यह निवेश दीर्घकाल में रणनीतिक निर्भरता का कारण न बन जाए। सेमीकंडक्टर, टेलीकॉम और डिजिटल टेक्नोलॉजी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में विदेशी पूंजी को खुली छूट देना सुरक्षा जोखिम पैदा कर सकता है। इसलिए भारत को निवेश के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा हितों का संतुलन बनाना होगा। यह सच है कि वैश्विक वित्तीय व्यवस्था अब सबसे बड़ा हथियार बन चुकी है। डॉलर आधारित लेन-देन प्रणाली पर अमेरिका का नियंत्रण उसे यह ताकत देता है कि वह किसी भी देश को वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से बाहर कर दे। रूस पर लगाए गए प्रतिबंध इसका ताजा उदाहरण हैं। भारत जैसे देशों के लिए यह गंभीर चुनौती है। यदि भविष्य में किसी कारण से भारत को पश्चिमी देशों की नीतिगत असहमति का सामना करना पड़ा, तो डॉलर और वित्तीय प्रतिबंध उसके लिए कठिनाई पैदा कर सकते हैं। यही कारण है कि भारत, रूस और चीन जैसे देश वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। इस जटिल परिदृश्य में भारत को तीन स्तरों पर रणनीति बनानी होगी— व्यापार नीति में विविधता: भारत को अपने निर्यात-आयात भागीदारों में संतुलन बनाए रखना होगा। केवल अमेरिका या यूरोप पर निर्भर रहना खतरनाक हो सकता है, इसलिए एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में नए बाज़ार खोजने होंगे। निवेश सुरक्षा: संवेदनशील क्षेत्रों में निवेश की निगरानी ज़रूरी है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े क्षेत्रों में विदेशी पूंजी का प्रवेश सोच-समझकर होना चाहिए। वित्तीय स्वायत्तता: भारत को डिजिटल रुपया, स्थानीय मुद्रा आधारित व्यापार और क्षेत्रीय वित्तीय व्यवस्थाओं को मजबूत करना होगा ताकि डॉलर आधारित निर्भरता कम हो। हालाँकि यह परिदृश्य पूरी तरह चुनौतीपूर्ण नहीं है। भारत के पास एक मजबूत बाज़ार, युवा जनसंख्या और बढ़ती उत्पादन क्षमता है। यह वैश्विक निवेशकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यदि भारत समय रहते सतर्क रणनीति बनाए, तो वह न केवल इन चुनौतियों से सुरक्षित रह सकता है, बल्कि स्वयं वैश्विक आर्थिक नियमों के निर्माण में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है। भारत अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर ग्लोबल साउथ की आवाज़ बन सकता है और विकासशील देशों के लिए न्यायपूर्ण आर्थिक व्यवस्था की वकालत कर सकता है। यह उसकी साख और प्रभाव दोनों को बढ़ाएगा। अंत में कह सकते हैं कि आज की वैश्विक व्यवस्था में व्यापार, निवेश और वित्त महज विकास के उपकरण नहीं, बल्कि भू-राजनीति के हथियार बन चुके हैं। बड़े देश इन्हें अपने हित साधने और विरोधियों को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत को इस वास्तविकता को समझते हुए हर कदम पर सतर्क रहना होगा। संतुलित व्यापार नीति, रणनीतिक निवेश निगरानी और वित्तीय स्वायत्तता ही भारत को इन चुनौतियों से उबार सकती है। यदि भारत समय रहते यह रणनीति अपनाता है, तो न केवल अपनी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करेगा बल्कि “विकसित भारत 2047” के लक्ष्य की ओर भी अधिक मजबूती से बढ़ सकेगा।