भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में बदलाव के दौर में तियानजिन (चीन) में भारत और चीन के बीच हुई राजनयिक हलचल एक नया अध्याय खोल रही है। यह बैठक ऐसे समय पर हुई है जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा चीन पर भारी टैरिफ लगाए जाने से वैश्विक व्यापार असंतुलन गहरा गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत-चीन की बढ़ती नजदीकियां न केवल क्षेत्रीय राजनीति बल्कि विश्व आर्थिक समीकरणों पर भी असर डालेंगी। ट्रंप प्रशासन ने चीनी सामान पर बड़े पैमाने पर टैरिफ लगाकर व्यापार युद्ध की राह चुनी है। अमेरिका का तर्क है कि चीन अनुचित व्यापार प्रथाओं, बौद्धिक संपदा की चोरी और असंतुलित व्यापार घाटे के लिए जिम्मेदार है। टैरिफ से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को तो तत्काल राहत मिल सकती है, लेकिन इससे वैश्विक सप्लाई चेन पर गहरा असर पड़ा है। चीन ने भी अमेरिकी कदमों का जवाबी हमला करते हुए कृषि और तकनीक सहित कई अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क बढ़ा दिया। इस खींचतान का सबसे बड़ा झटका अंतरराष्ट्रीय बाजार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को लग रहा है। तेल, स्टील और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसी वस्तुओं की कीमतों में अस्थिरता से लेकर निवेशकों के भरोसे में कमी तक इसके कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। भारत और चीन ने तियानजिन में आयोजित वार्ता को न सिर्फ द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूती देने के अवसर के रूप में देखा, बल्कि इसे अमेरिकी दबाव की पृष्ठभूमि में रणनीतिक संतुलन साधने का भी मंच माना जा रहा है। दोनों देशों ने आपसी व्यापार बढ़ाने, सीमा पर स्थिरता कायम रखने और क्षेत्रीय सहयोग पर जोर दिया। तियानजिन में जिस तरह की गर्मजोशी और संवाद का प्रदर्शन हुआ, उसने यह संकेत दिया कि भारत और चीन अमेरिका की व्यापारिक जंग को अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे। भारत और चीन के बीच व्यापार का आकार 100 अरब डॉलर से अधिक पहुंच चुका है, हालांकि इसमें संतुलन चीन के पक्ष में है। भारत लंबे समय से व्यापार घाटे को लेकर चिंतित रहा है। तियानजिन की बैठक में इस मुद्दे पर भी चर्चा हुई। चीन ने संकेत दिए कि वह भारतीय कृषि उत्पादों, आईटी सेवाओं और फार्मास्यूटिकल्स को अधिक बाजार उपलब्ध कराने पर विचार कर सकता है। भारत के लिए यह अवसर अमेरिकी दबाव के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि चीन भारतीय उत्पादों के लिए अपने बाजार खोलता है, तो इससे न केवल भारत का व्यापार घाटा कम होगा बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी। भारत-चीन के बीच यह बढ़ता सहयोग अमेरिका के लिए नई चुनौती बन सकता है। ट्रंप प्रशासन ने हाल के वर्षों में भारत को एशिया-प्रशांत रणनीति का अहम हिस्सा माना है और चीन को संतुलित करने के लिए नई दिल्ली को अपने पाले में रखने की कोशिश की है। लेकिन अगर भारत और चीन आर्थिक रूप से अधिक करीब आते हैं, तो यह अमेरिका की ‘इंडो-पैसिफिक’ रणनीति को कमजोर कर सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत अपने हितों को देखते हुए संतुलित विदेश नीति अपनाएगा। वह अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंध बनाए रखेगा लेकिन साथ ही चीन के साथ भी आर्थिक सहयोग बढ़ाने में हिचकिचाएगा नहीं। एशिया का भू-राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। दक्षिण चीन सागर में तनाव, अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी और रूस-चीन की बढ़ती नजदीकियां इस क्षेत्र को पहले से अधिक जटिल बना रही हैं। ऐसे में भारत-चीन वार्ता न केवल द्विपक्षीय रिश्तों को बल्कि व्यापक क्षेत्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगी। चीन, भारत को ‘रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप’ जैसे व्यापार समझौतों में शामिल करने का प्रयास कर रहा है, जबकि भारत सावधानीपूर्वक अपने कदम बढ़ा रहा है। तियानजिन में हुई चर्चा ने इस संभावना को फिर से जीवित कर दिया है कि भारत और चीन एशियाई देशों के बीच नए आर्थिक ढांचे को आकार देने में सहयोग कर सकते हैं। भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अमेरिका और चीन दोनों के बीच संतुलन बनाए। अमेरिका भारत को रक्षा, प्रौद्योगिकी और ऊर्जा के क्षेत्र में बड़ा सहयोगी मानता है। वहीं चीन के साथ भारत की न केवल सीमा विवाद है बल्कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा बनी हुई है। इसके बावजूद आर्थिक यथार्थ यह है कि भारत को अपनी विकास दर तेज रखने के लिए चीन जैसे बड़े बाजार और निवेश की आवश्यकता है। तियानजिन में हुई बातचीत ने भारत को यह संकेत दिया है कि वह चीन के साथ सहयोग बढ़ाकर अमेरिकी दबाव का संतुलन साध सकता है। आने वाले समय में भारत-चीन रिश्तों की दिशा इस बात पर निर्भर करेगी कि दोनों देश सीमा विवाद और विश्वास की कमी जैसी पुरानी समस्याओं को किस हद तक हल कर पाते हैं। यदि तियानजिन में शुरू हुई पहल आगे बढ़ती है, तो यह एशिया की राजनीति और वैश्विक व्यापार दोनों में नया अध्याय लिख सकती है। अमेरिका के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि एशिया अब केवल वॉशिंगटन के दबाव में नहीं चलेगा। भारत और चीन जैसे बड़े देश अपने हितों के अनुरूप नई साझेदारियां बनाने को तैयार हैं।