Wednesday, September 03, 2025
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संपादकीय

Distance from America, closeness to Russia-China: Will India's global future really change?: अमरीका से दूरी, रूस-चीन से नजदीकी: क्या सच में बदल जाएगा भारत का वैश्विक भविष्य?

September 02, 2025 09:35 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़   

भारत की विदेश नीति हमेशा से "रणनीतिक स्वायत्तता" पर आधारित रही है। आज जब वैश्विक राजनीति अमरीका बनाम रूस-चीन खेमे में बंटती दिख रही है, भारत के लिए संतुलन बनाना आसान नहीं। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अमरीका के साथ रक्षा और तकनीकी साझेदारी को मजबूत किया, लेकिन साथ ही रूस और चीन के साथ भी रिश्ते बनाए रखे। हाल ही में रूस और चीन से भारत की बढ़ती नजदीकियों और अमरीका से थोड़ी दूरी ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि इस बदलाव से भारत को क्या नुकसान और क्या फायदा होगा। अमरीका ने हाल ही में भारत पर कई आर्थिक दबाव डाले। टैरिफ बढ़ाए, वीज़ा नियम कड़े किए और कृषि-टेक्सटाइल निर्यात पर अंकुश लगाया। वहीं, रूस-यूक्रेन युद्ध के मसले पर भारत ने रूस से तेल और रक्षा सौदे जारी रखे, जिससे वॉशिंगटन असहज हुआ। चीन के साथ भारत का सीधा सीमा विवाद है, लेकिन क्षेत्रीय और बहुपक्षीय मंचों पर दोनों देशों की साझेदारी बनी हुई है। इसी समीकरण में भारत ने शंघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स जैसे मंचों पर रूस-चीन के साथ मिलकर अपनी भूमिका मजबूत की। गर हम संभावित फायदों की बात करें तो रूस भारत का सबसे बड़ा ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बन चुका है। सस्ते दामों पर कच्चा तेल और गैस खरीदकर भारत ने न सिर्फ महंगाई पर नियंत्रण पाया बल्कि विदेशी मुद्रा भंडार भी सुरक्षित किया। अमरीका से दूरी और रूस से नजदीकी का सबसे बड़ा फायदा यही है। भारत के 60% से अधिक हथियार अभी भी रूस से आते हैं। तकनीकी हस्तांतरण और संयुक्त उत्पादन जैसे प्रोजेक्ट (जैसे ब्रह्मोस मिसाइल) रूस के साथ ही संभव हुए। चीन के साथ खुला विवाद होते हुए भी रूस का समर्थन भारत की सामरिक स्थिति को मजबूत करता है।ब्रिक्स और SCO जैसे संगठन अमरीका-नेतृत्व वाले पश्चिमी गठजोड़ का विकल्प बन रहे हैं। इन मंचों पर सक्रिय रहकर भारत न केवल दक्षिणी गोलार्ध के देशों की आवाज़ बन रहा है बल्कि "विकासशील विश्व" का नेतृत्व भी हासिल कर रहा है। रूस और चीन से बढ़ते व्यापारिक रिश्ते भारत को नए बाजार देते हैं। रूस-भारत व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका है। वहीं, चीन भले ही प्रतिद्वंद्वी हो, लेकिन व्यापारिक साझेदार के रूप में उसकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यदि भारत केवल अमरीका के खेमे में जाता तो उसकी स्वतंत्र विदेश नीति पर सवाल उठते। रूस-चीन के साथ संबंध मजबूत करके भारत यह संकेत देता है कि वह किसी एक ध्रुव पर निर्भर नहीं है। अब गौर करते हैं संभावित नुकसान पर। अमरीका भारत का सबसे बड़ा निवेशक है और हाई-टेक सेक्टर (आईटी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग, रक्षा टेक्नोलॉजी) में सहयोग भी वही देता है। अगर रिश्तों में खटास आई तो भारत को इन क्षेत्रों में नुकसान उठाना पड़ सकता है। अमरीका एशिया-प्रशांत में "क्वाड" जैसे मंचों के जरिए चीन को संतुलित करना चाहता है। यदि भारत रूस-चीन के साथ ज्यादा खड़ा दिखेगा तो अमरीका उसकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा कर सकता है। इससे इंडो-पैसिफिक रणनीति कमजोर हो सकती है। रूस-चीन की साझेदारी बहुत गहरी है। भारत भले ही रूस से करीबी रखे, लेकिन चीन के साथ सीमा विवाद और आर्थिक प्रतिस्पर्धा बनी हुई है। इस स्थिति में रूस भी भारत और चीन के बीच खुलकर पक्ष लेने से हिचक सकता है। भारत का 40% से अधिक निर्यात यूरोप और अमरीका जाता है। यदि पश्चिमी देश भारत पर व्यापारिक दबाव बढ़ाते हैं तो भारतीय उद्योग और आईटी सेक्टर को बड़ा नुकसान हो सकता है। विदेश नीति का सबसे बड़ा खतरा असंतुलन है। यदि भारत रूस-चीन पर अधिक झुकाव दिखाता है, तो पश्चिमी दुनिया उसे "रूस का सहयोगी" मान सकती है। इससे भारत की वैश्विक छवि प्रभावित हो सकती है। यह सच है कि भारत की असली ताकत उसकी "बहु-ध्रुवीय विदेश नीति" में है। रूस से ऊर्जा और रक्षा सहयोग, चीन से व्यापारिक तालमेल, और अमरीका से तकनीकी व निवेश सहयोग—ये तीनों ध्रुव भारत के लिए जरूरी हैं। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय की कोशिश यही है कि किसी भी खेमे में पूरी तरह न जाकर संतुलन बनाए रखा जाए। भारत "गुटनिरपेक्षता 2.0" की राह पर है, जहां वह हर ध्रुव से अपने हित के हिसाब से सहयोग करता है। यही रणनीति भारत को वैश्विक शक्ति बनने का रास्ता दे सकती है। रूस और चीन के साथ नजदीकी बढ़ाना और अमरीका से थोड़ी दूरी बनाना भारत के लिए फायदे और नुकसान दोनों लेकर आता है। एक तरफ ऊर्जा सुरक्षा, रक्षा सहयोग और बहुपक्षीय मंचों पर नेतृत्व का अवसर है, वहीं दूसरी तरफ तकनीकी साझेदारी, निवेश और पश्चिमी बाजारों तक पहुंच पर खतरा है। भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण यही होगा कि वह संतुलन बनाए रखे—अमरीका से दूरी इतनी न हो कि हाई-टेक सेक्टर और निवेश प्रभावित हो जाएं, और रूस-चीन से नजदीकी इतनी हो कि रणनीतिक सहयोग सुरक्षित रहे। अगर भारत इस "संतुलित विदेश नीति" को जारी रखता है, तो न केवल नुकसान से बच सकता है बल्कि आने वाले वर्षों में वैश्विक शक्ति संतुलन का केंद्र भी बन सकता है।

 

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