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संपादकीय

Diplomacy of leniency and friendship in India-US trade war or a new game?: बाबू जी धीरे चलना ..ज़रा संभलना-बड़े धोखे हैं इस राह मेः भारत-अमेरिका व्यापार युद्ध में नरमी-दोस्ती की डिप्लोमेसी या नया खेल?

September 06, 2025 09:30 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़   

भारत और अमेरिका के रिश्ते अक्सर उतार-चढ़ाव से गुजरते रहे हैं। कभी रणनीतिक साझेदारी के नाम पर दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाती दिखती हैं, तो कभी व्यापारिक टकराव और टैरिफ युद्ध रिश्तों में खटास घोल देता है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बनी मित्रता की छवि अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में रही। लेकिन यह भी सच है कि ट्रंप प्रशासन की नीतियों में 'अमेरिका फर्स्ट' का रुख इतना सख्त रहा कि भारत को भी कई मौकों पर झटका सहना पड़ा। अब सवाल यह है कि क्या हालिया घटनाक्रम रिश्तों में नरमी की नई बुनियाद रख रहा है? क्या टैरिफ विवाद पर दोनों देशों में सुलह की जमीन तैयार हो रही है या यह केवल राजनीतिक दिखावे का हिस्सा है? याद रहे भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक विवाद कोई नया नहीं है। अमेरिका ने बार-बार यह आरोप लगाया कि भारत अपने घरेलू उद्योगों की रक्षा के लिए उच्च आयात शुल्क लगाता है, जिससे अमेरिकी कंपनियों को नुकसान होता है। दूसरी ओर भारत का तर्क रहा है कि यदि अमेरिकी बाजार में भारतीय उत्पादों को समान अवसर नहीं मिलेगा तो प्रतिस्पर्धा का संतुलन बिगड़ेगा। 2019 में अमेरिका ने भारत को दिए गए ‘जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंसेज़’ का दर्जा वापिस ले लिया, जिससे भारत को करीब 6 अरब डॉलर के निर्यात पर असर पड़ा। भारत ने भी अमेरिकी कृषि उत्पादों और औद्योगिक सामानों पर जवाबी टैरिफ बढ़ाए। यह स्थिति धीरे-धीरे 'ट्रेड वॉर' जैसी बन गई। पिछले कुछ दिनों में डोनाल्ड ट्रंप के रुख में नरमी दिखाई दी है। उन्होंने भारत को न केवल एक रणनीतिक साझेदार के रूप में दोहराया बल्कि व्यापारिक समझौते के संकेत भी दिए। ट्रंप प्रशासन जानता है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव अमेरिका के लिए चुनौती है, और इस समीकरण में भारत को नज़रअंदाज़ करना संभव नहीं। यही वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने अब टैरिफ विवाद पर नरमी दिखाते हुए इसे बातचीत से सुलझाने का संकेत दिया है। यह भी समझना होगा कि ट्रंप की आंतरिक राजनीति में भारतीय-अमेरिकी समुदाय की भूमिका महत्वपूर्ण है, खासकर चुनावी समीकरणों में। इस लिहाज से भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाना उनकी प्राथमिकता भी हो सकता है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस मौके को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 'हाउडी मोदी' और 'नमस्ते ट्रंप' जैसे आयोजनों ने दोनों नेताओं की निजी कैमिस्ट्री को दुनिया के सामने रखा। मोदी सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की कि भारत अमेरिका का विश्वसनीय साझेदार है। लेकिन यह निजी मित्रता क्या व्यापारिक तनाव को कम कर पाएगी? यह बड़ा सवाल है। मोदी का रुख साफ है—भारत अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था और किसानों के हित से समझौता नहीं करेगा। फिर भी, वैश्विक मंचों पर अमेरिका के साथ करीबी दिखाना भारत के लिए सामरिक दृष्टि से फायदेमंद है। भारत-अमेरिका के बीच व्यापारिक समझौता आसान नहीं है। अमेरिका चाहता है कि भारत अपने बाजार में अमेरिकी डेयरी, फार्मा और टेक कंपनियों को ज्यादा अवसर दे। वहीं भारत चाहता है कि अमेरिका उसकी आईटी सेवाओं और कपड़ा उद्योग के लिए आयात शुल्क में रियायत दे। मामला सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं है। पेटेंट, बौद्धिक संपदा अधिकार, डेटा प्रोटेक्शन और डिजिटल मार्केट जैसे विषय भी दोनों देशों के बीच मतभेद का कारण हैं। इन मुद्दों पर बिना आपसी भरोसे और लचीलेपन के आगे बढ़ना मुश्किल होगा। यही कारण है कि भले ही तस्वीर में 'दोस्ती' दिखाई दे रही हो, पर असलियत में रास्ता चुनौतियों से भरा है। यहां जरा सी चूक दोनों देशों को फिर पुराने विवादों में धकेल सकती है। व्यापारिक विवाद के बावजूद रक्षा और रणनीतिक क्षेत्रों में भारत-अमेरिका की साझेदारी लगातार गहरी होती गई है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता बन चुका है। क्वाड जैसे समूह में दोनों देश मिलकर चीन की आक्रामकता को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। ऊर्जा, अंतरिक्ष और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी सहयोग बढ़ा है। ऐसे में दोनों देशों पर दबाव है कि वे अपने आर्थिक विवादों को जल्द निपटाएं ताकि व्यापक साझेदारी पर नकारात्मक असर न पड़े। भारत की जनता भी इस रिश्ते को लेकर उम्मीद और आशंका दोनों रखती है। एक ओर यह माना जाता है कि अमेरिका के साथ करीबी से भारत को तकनीकी, निवेश और सुरक्षा लाभ मिल सकता है। दूसरी ओर चिंता यह भी है कि कहीं यह रिश्ता भारत की नीतिगत स्वतंत्रता को सीमित न कर दे। याद रखना चाहिए कि अमेरिका की विदेश नीति का आधार 'राष्ट्रीय हित' है, न कि स्थायी दोस्ती। ट्रंप का नरम पड़ना भी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। ऐसे में भारत को बेहद सावधानी से कदम बढ़ाने होंगे—ठीक वैसे ही जैसे गीत की पंक्ति कहती है, "बाबू जी धीरे चलना, बड़े धोखे हैं इस राह में।" भारत और अमेरिका के रिश्ते आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं। टैरिफ विवाद पर सुलह की संभावना दिख रही है, लेकिन यह रास्ता आसान नहीं। मोदी और ट्रंप की दोस्ती ने माहौल जरूर बदला है, पर असली परीक्षा ठोस आर्थिक समझौतों और दीर्घकालिक सहयोग में होगी। भारत को अपने हितों की रक्षा करते हुए अमेरिका के साथ सामरिक और आर्थिक तालमेल बनाए रखना होगा। यही संतुलन आने वाले वर्षों में दोनों देशों की साझेदारी की दिशा तय करेगा।

 

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