भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी शक्ति उसका नेतृत्व होता है। जनता अपने प्रतिनिधियों को न केवल शासन की बागडोर सौंपती है, बल्कि उनसे आदर्श आचरण और जवाबदेही की भी अपेक्षा करती है। किंतु चुनाव सुधारों पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानि एडीआर की ताज़ा रिपोर्ट ने भारतीय राजनीति की सच्चाई को एक बार फिर सामने ला दिया है। रिपोर्ट के अनुसार, देश के 643 मंत्रियों में से 302 (47 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 174 मंत्री गंभीर आपराधिक मामलों, जैसे हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराधों के आरोपी हैं। यह आंकड़ा न केवल चिंता का विषय है, बल्कि लोकतंत्र की साख और जनता के विश्वास के लिए भी खतरे की घंटी है। रिपोर्ट ऐसे समय सामने आई है, जब केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन विधेयक पेश किए हैं। इनमें प्रावधान है कि यदि कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री गंभीर आपराधिक मामले में दोष सिद्ध होकर 30 दिनों से अधिक जेल में रहता है, तो उसे पद से हटाना अनिवार्य होगा। लेकिन सवाल यह है कि जब तक दोषसिद्धि नहीं होती, तब तक गंभीर आरोपों में घिरे नेता सत्ता की कुर्सी पर कैसे बैठे रह सकते हैं? गर हम राजनीतिक पार्टियों के रिपोर्ट कार्ड की बात करें तो एडीआर ने जिन हलफनामों का विश्लेषण किया, उसमें भाजपा के 336 मंत्रियों में 136 (40 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज पाए गए, जिनमें से 88 (26 प्रतिशत) गंभीर अपराधों से जुड़े हैं। कांग्रेस की तस्वीर और भी चिंताजनक है—45 मंत्रियों में से 33 (74 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले हैं, जिनमें 18 (30 प्रतिशत) पर गंभीर आरोप हैं। द्रमुक (डी एम के) के 31 मंत्रियों में से 27 (87 प्रतिशत) पर आरोप हैं, जिनमें 14 गंभीर मामले शामिल हैं। तृणमूल कांग्रेस के 40 मंत्रियों में 13 (33 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले और 8 (20 प्रतिशत) पर गंभीर मामले दर्ज हैं। सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा तेलुगु देशम पार्टी (टी डी पी) का है—इसके 23 में से 22 (96 प्रतिशत) मंत्रियों ने आपराधिक मामलों की जानकारी दी है, जिनमें से 13 गंभीर आरोप झेल रहे हैं। आम आदमी पार्टी भी इससे अछूती नहीं है। उसके 16 में से 11 (69 प्रतिशत) मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं और पांच (31 प्रतिशत) पर गंभीर आरोप हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 72 केंद्रीय मंत्रियों में से 29 (40 प्रतिशत) आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। वहीं 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों—आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और पुडुचेरी—में मंत्रियों का 60 प्रतिशत से अधिक आपराधिक मामलों में फंसा हुआ है।
इसके विपरीत, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और उत्तराखंड जैसे राज्यों के मंत्रियों ने अपने खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं होने की सूचना दी है। यह असमानता बताती है कि राजनीति में अपराधीकरण की जड़ें कितनी गहरी और असमान रूप से फैली हुई हैं। एडीआर ने रिपोर्ट में मंत्रियों की संपत्ति का भी विश्लेषण किया है। औसतन प्रत्येक मंत्री की संपत्ति 37.21 करोड़ रुपये है, जबकि सभी 643 मंत्रियों की कुल संपत्ति करीब 23,929 करोड़ रुपये है। 30 विधानसभाओं में से 11 में अरबपति मंत्री हैं। कर्नाटक में सबसे अधिक आठ, आंध्र प्रदेश में छह और महाराष्ट्र में चार अरबपति मंत्री मौजूद हैं। देश के सबसे अमीर मंत्री टीडीपी के डॉ. चंद्रशेखर पेम्मासानी हैं, जिनकी संपत्ति 5,705 करोड़ रुपये से अधिक है। कर्नाटक कांग्रेस के नेता डीके शिवकुमार 1,413 करोड़ रुपये के साथ दूसरे स्थान पर हैं, जबकि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू 931 करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति के मालिक हैं। वहीं दूसरी ओर, त्रिपुरा के मंत्री शुक्ला चरण नोआतिया ने मात्र दो लाख रुपये और पश्चिम बंगाल की मंत्री बीरबाहा हांसदा ने तीन लाख रुपये से कुछ अधिक की संपत्ति घोषित की है। यह विषमता राजनीति में आर्थिक असमानता और धनबल की भूमिका पर सवाल खड़े करती है। एडीआर की पिछली रिपोर्ट ने बताया था कि देश के 40 प्रतिशत मुख्यमंत्रियों पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी 89 मामलों के साथ सबसे ऊपर हैं। उनके बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन (47 मामले), आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू (19 मामले), कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया (13 मामले) और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (5 मामले) आते हैं। इस से स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में अपराधीकरण की समस्या कितनी व्यापक है। एक तरफ आम जनता अपराध-मुक्त समाज और पारदर्शी शासन की उम्मीद करती है, दूसरी तरफ गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे नेता न केवल चुनाव लड़ते हैं बल्कि मंत्रीपद की शपथ भी लेते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे हालात में लोकतंत्र की नैतिकता बची रह सकती है? गर इस समस्या के हल की बात करें तो इनके लिए केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है। चुनाव आयोग को कठोर नियम लागू करने होंगे ताकि गंभीर मामलों में आरोपित व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। राजनीतिक दलों को भी आत्मनिरीक्षण करना होगा और उम्मीदवार चयन में नैतिकता को प्राथमिकता देनी होगी। साथ ही, जनता को भी ऐसे उम्मीदवारों को नकारने की जागरूकता विकसित करनी होगी जिन पर गंभीर आरोप हैं। भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं, लेकिन उन पर अपराध और धनबल का साया दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। लोकतंत्र की विश्वसनीयता तभी सुरक्षित रहेगी, जब जनता के प्रतिनिधि न केवल विधिक रूप से, बल्कि नैतिक रूप से भी बेदाग हों।