भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
'माध्यमिक शिक्षा पर सार्वजनिक रिपोर्ट 2024' ने भारत में स्कूली शिक्षा की गहराई से समीक्षा प्रस्तुत की है। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि प्राथमिक स्तर पर नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि के बावजूद, माध्यमिक और व्यावसायिक शिक्षा गंभीर रूप से उपेक्षित बनी हुई है। ऐसे में जब सिंगापुर और जापान जैसे देश मज़बूत माध्यमिक शिक्षा प्रणाली के बल पर विकास की गति तेज कर चुके हैं, भारत में इस क्षेत्र में कम निवेश और संसाधनों की कमी से युवाओं की कौशल क्षमता और रोजगार योग्यता में असंतुलन पैदा हो गया है। यह स्थिति देश के जनसांख्यिकीय लाभांश को खतरे में डालती है और “अमीर बनने से पहले बूढ़े हो जाने” की आशंका को प्रबल करती है। आइये समझते हैं माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में संरचनात्मक खामियों के बारे में। देशभर में 8.4 लाख शिक्षक पद रिक्त हैं, जिनमें विज्ञान और गणित जैसे विषयों के लिये विशेष रूप से विशेषज्ञ शिक्षकों की भारी कमी है। राज्यों में कई विद्यालय अनुबंध या अतिथि शिक्षकों पर निर्भर हैं, जिससे शिक्षण की गुणवत्ता प्रभावित होती है।तेलंगाना के आवासीय विद्यालयों में प्रति छात्र 2 लाख रुपये खर्च किए जाते हैं, जबकि केंद्रीय विद्यालयों में यह राशि मात्र 65,000 रुपये है। इसके अलावा, 47% स्कूलों में पेयजल और 53% में छात्राओं के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं है। अधिकांश स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समितियाँ या तो हैं ही नहीं या कागजों में हैं। सी ए जी की रिपोर्ट के अनुसार 12 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में 3% से 88% तक स्कूलों में एस एम सी मौजूद नहीं थीं। समग्र शिक्षा योजना के तहत कई राज्यों को अपेक्षित वित्तीय सहायता नहीं मिली।मर्सर-मेटल रिपोर्ट के अनुसार केवल 45% स्नातक ही रोजगार योग्य हैं। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों और उद्योग की जरूरतों के बीच का फासला युवाओं के लिए रोजगार के अवसरों को सीमित करता है।केवल 57.2% स्कूलों में कंप्यूटर और 53.9% में इंटरनेट की सुविधा है। डिजिटल उपकरणों का अधिकतर इस्तेमाल शिक्षकों के स्थान पर किया जाता है, न कि उनकी सहायता के लिए।आदिवासी छात्रों को अपनी मातृभाषा के स्थान पर हिंदी, अंग्रेजी या तेलुगु में पढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे उनकी शैक्षणिक प्रगति बाधित होती है। यह स्थिति केंद्रीय भर्ती नीतियों द्वारा और भी बदतर हो जाती है।भारत की शिक्षा प्रणाली आज भी रटने को प्राथमिकता देती है। जबकि नई शिक्षा नीति 2020 योग्यता आधारित शिक्षा की बात करती है, परंतु परीक्षा आधारित प्रणाली में बदलाव की गति धीमी है। शिक्षा संरचना में हालिया बदलाव और सरकारी पहलों की बात करें तो हम पायेंगे कि भारत की स्कूली शिक्षा प्रणाली अब 5+3+3+4 प्रारूप के अनुसार पुनर्गठित हो रही है, जो 3 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों को समाविष्ट करती है। यह प्रारंभिक शिक्षा को औपचारिक शिक्षा प्रणाली से जोड़ने का प्रयास है।सर्व शिक्षा अभियान और छात्रवृत्तियाँ: एस टी एस सी छात्रों और लड़कियों के नामांकन में वृद्धि, जैसे महिला एस टी छात्रों में 80.1% नामांकन वृद्धि। डिजिटल शिक्षा: स्मार्ट क्लास, यूट्यूब सामग्री और आई सी टी प्रयोगशालाएं प्रभावी रूप से प्रयोग हो रही हैं, हालांकि शिक्षक की जगह नहीं ले सकतीं। अटल टिंकरिंग लैब्स: नवाचार को बढ़ावा देने की पहल, लेकिन पर्याप्त विज्ञान शिक्षक न होने से उपयोग सीमित।कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयः वंचित समुदायों की लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालय, जिसमें न्यूनतम 75% आरक्षण दिया गया है। लिंग संवेदनशीलता और महिला शिक्षकों की भर्ती: अलग शौचालय, संवेदनशीलता प्रशिक्षण और अधिक महिला शिक्षकों की नियुक्ति से स्कूलों में लड़कियों के प्रतिधारण में सुधार हुआ है। ओ ई सी डी देशों की तरह, भारत को भी शिक्षकों की गुणवत्ता, पाठ्यक्रम नवाचार और सामुदायिक भागीदारी पर ध्यान देना होगा। पीसा रैंकिंग में सुधार के लिए छात्रों में विश्लेषणात्मक क्षमता, संवाद और रचनात्मकता को बढ़ाना होगा। समाधान और सुधार की दिशा में रणनीतिक सुझाव पर ध्यान देना जरूरी है। सभी शिक्षण पदों को शीघ्र भरना चाहिए और विज्ञान शिक्षकों के लिए अनिवार्य प्रशिक्षिण प्रणाली लागू की जानी चाहिए।हर स्कूल में सक्रिय एस एम सी गठित होनी चाहिए, जिन्हें बजट, विकास और संसाधन आवंटन में स्वतंत्रता दी जाए। स्थानीय सरकार इसकी निगरानी करे।"मॉडल स्कूलों" से फंड हटाकर जरूरतमंद राजकीय स्कूलों में पुनर्नियोजन किया जाए। प्रति छात्र सरकारी व्यय का मानकीकरण हो। आई टी आई और पॉलिटेक्निक को उद्योग की जरूरतों के अनुसार पुनर्गठित किया जाए। पी पी पी मॉडल के तहत लैब्स और उपकरणों का आधुनिकीकरण हो।रटने की शिक्षा के स्थान पर योग्यता आधारित शिक्षा को प्राथमिकता मिले। आलोचनात्मक सोच, नवाचार और अंतःविषयक अध्ययन को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।डिजिटल संसाधनों का इस्तेमाल केवल पूरक के रूप में हो। शिक्षक की भूमिका को तकनीक के माध्यम से सशक्त किया जाए, प्रतिस्थापित नहीं। अंत में कह सकते हैं कि भारत की माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था एक संक्रमण काल में है। परोस 2024 रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि भले ही नामांकन बढ़ा हो, लेकिन यदि शिक्षा की गुणवत्ता, शिक्षक प्रशिक्षण, शासन व्यवस्था और व्यावसायिक शिक्षा की प्रासंगिकता पर ध्यान नहीं दिया गया, तो जनसांख्यिकीय लाभांश एक 'लॉस्ट चांस' में बदल सकता है। सिंगापुर, जापान और ओ ई सी डी देशों के अनुभव बताते हैं कि कुशल शिक्षक, सामुदायिक सहभागिता और उद्योग-उन्मुख शिक्षा ही किसी राष्ट्र को वैश्विक नेतृत्व के पथ पर आगे ले जाती है। भारत को यदि “अमीर बनने से पहले बूढ़े हो जाने” के संकट से बचना है, तो शिक्षकों के सशक्तीकरण, सामुदायिक स्वामित्व और व्यावसायिक समन्वय पर नीतिगत प्राथमिकता देनी ही होगी।