भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में नागरिकता केवल एक संवैधानिक अधिकार नहीं, बल्कि जीवन की बुनियादी पहचान है। लेकिन जब इसी पहचान को संदेह के दायरे में लाकर निर्दोष नागरिकों को विदेशी करार दे दिया जाए और उन्हें उनके ही देश से जबरन बाहर कर दिया जाए, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर गहरी चोट है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में एक 65 वर्षीय महिला को बांग्लादेशी बताकर हिरासत में लिए जाने का मामला सामने आया है, जिसने एक बार फिर इस संवेदनशील मुद्दे को राष्ट्रीय बहस में ला दिया है। आइये समझते हैं भारत में नागरिकता संकट की जड़ों के बारे में। असम और पश्चिम बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में वर्षों से यह समस्या उभर रही है, जहाँ नागरिकता का सबूत होने के बावजूद हजारों लोग अवैध प्रवासी घोषित कर दिए जाते हैं। हाल के वर्षों में एन आर सी की प्रक्रिया और सी ए ए के क्रियान्वयन ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। नागरिकों को अक्सर तब तक डिटेंशन सेंटर में रखा जाता है जब तक वे अपने भारतीय होने का प्रमाण अदालतों में नहीं दे पाते — और कई बार तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अब बात करते हैं असली नागरिकों और झूठे ठप्पे की। 2024-2025 के दौरान दर्जनों ऐसे मामले सामने आए जहाँ पुलिस ने भारतीय दस्तावेज़ों को नकारते हुए नागरिकों को बांग्लादेशी घोषित किया। नदिया, मुर्शिदाबाद, बारपेटा और बोंगईगांव जैसे ज़िलों में स्थानीय प्रशासन की भूमिका पर कई बार सवाल उठ चुके हैं। जून 2024 में असम के बारपेटा ज़िले से एक वायरल वीडियो सामने आया था, जिसमें एक बुजुर्ग व्यक्ति — अब्दुल हमीद — रोते हुए बता रहा था कि वह 1960 से उस गांव में रह रहा है, लेकिन पुलिस ने एन आर सी में नाम न होने के आधार पर उसे विदेशी घोषित कर डिटेंशन सेंटर भेज दिया। पुलिस की मर्जी को लेकर उठते सवालों की बात करें तो भारतीय संविधान अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन इन नागरिकता विवादों में यह अधिकार बार-बार कुचला गया है। 'फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल' जैसी संस्थाएं, जो विदेशी नागरिकों की पहचान तय करती हैं, अक्सर पुलिस रिपोर्टों को ही अंतिम साक्ष्य मान लेती हैं।मानवाधिकार आयोग और नागरिक संगठनों ने बार-बार चेताया है कि इन ट्रिब्यूनलों में पारदर्शिता और न्यायिक क्षमता की भारी कमी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि “किसी की नागरिकता तय करना सिर्फ प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है, यह न्यायिक विवेक का मामला है।” एन आर सी , सी ए ए और उनका दुरुपयोग भी किसी से छिपा नहीं है। 2019 में असम में जब एन आर सी की अंतिम सूची जारी हुई, तब लगभग 19 लाख लोग बाहर रह गए। इनमें न केवल मुस्लिम समुदाय, बल्कि सैकड़ों हिंदू, आदिवासी और ग़रीब भी थे। सी ए ए के तहत जहां कुछ समुदायों को नागरिकता का संरक्षण मिला, वहीं एन आर सी से बाहर लोगों को अवैध मानकर कार्रवाई जारी रही। पुलिस के लिए यह ‘सूची से बाहर = विदेशी’ की नीति बन गई, जिसका दुरुपयोग बड़े पैमाने पर हुआ। 2025 में सी ए ए को लेकर जारी केंद्र सरकार की समीक्षा प्रक्रिया भी धीमी रही, जिससे हज़ारों प्रभावित लोग अनिश्चितता में जी रहे हैं। यह भी सच है कि राजनीतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण होता है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि नागरिकता के इस पूरे मुद्दे को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। सत्ताधारी दलों पर आरोप है कि वे वोट बैंक की राजनीति के लिए खास समुदायों को निशाना बना रहे हैं। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मार झेल रहे हैं सीमावर्ती क्षेत्रों में बसे गरीब मुस्लिम, दलित और बंगाली भाषी नागरिक, जिनके पास कानूनी लड़ाई लड़ने की ताकत नहीं है। बांग्लादेश पहले से ही स्पष्ट असहमति जता चुका है। बांग्लादेश सरकार ने कई बार भारत को स्पष्ट रूप से सूचित किया है कि वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं मानेगी जिसके पास बांग्लादेशी नागरिक होने का प्रमाण न हो। वर्ष 2024 के अंत में ऐसे 117 निर्वासितों को ढाका प्रशासन ने भारत वापस लौटा दिया क्योंकि उनके पास कोई वैध पहचान नहीं थी। यह भारत के लिए एक अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी भी है।जब किसी को विदेशी घोषित किया जाता है, तो उसका केवल अधिकार नहीं, पूरा जीवन संकट में आ जाता है। डिटेंशन सेंटर में महीनों या वर्षों की कैद, परिवार से अलगाव, सामाजिक बहिष्कार और मानसिक पीड़ा – ये सारी सजा उस व्यक्ति को भुगतनी पड़ती है जो अपने देश का ही नागरिक है।एक महिला, शारमीन खातून, जिसे 2023 में बांग्लादेशी बताकर जेल भेजा गया था, 2025 में हाईकोर्ट से बरी हुई — लेकिन वह अपने पति को खो चुकी थी, बेटा स्कूल से बाहर हो चुका था और वह मानसिक आघात से जूझ रही थी। कानूनी स्थिति और सुधार की आवश्यकता बिलकुल जरूरी है। भारत का नागरिकता अधिनियम 1955 साफ़ करता है कि नागरिकता के निर्धारण के लिए जन्म, वंश, पंजीकरण और प्राकृतिककरण जैसे चार वैध मार्ग हैं। सुप्रीम कोर्ट भी कई बार स्पष्ट कर चुका है कि किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित करने से पहले व्यापक, निष्पक्ष और न्यायिक जांच अनिवार्य है। सुधारों से संबंध में कई प्रस्ताव हैं। जैसे पुलिस पर निगरानी बढ़े: स्थानीय प्रशासन और पुलिस द्वारा नागरिकता जांच में लापरवाही पर सख्त कार्रवाई हो।ट्रिब्यूनल सुधार: न्यायिक विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाए और पुलिस रिपोर्ट के स्थान पर निष्पक्ष दस्तावेजी जांच को महत्व मिले।फ्री लीगल एड: आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके को निशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाए।एन एच आर सी और मीडिया निगरानी: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वतः संज्ञान ले और मीडिया ऐसे मामलों को ज़ोर से उजागर करे। अंत में कह सकते हैं कि जब हम ‘आज़ाद भारत’ में रह रहे हैं, तब किसी भारतीय को नागरिकता के लिए सबूत देना पड़े, वह भी पुलिसिया ज़ुल्म के साये में — तो यह केवल संवैधानिक संकट नहीं, बल्कि नैतिक विफलता भी है।सरकार को चाहिए कि वह तुरंत प्रभाव से डिटेंशन सेंटरों की समीक्षा करे, बांग्लादेश भेजे गए निर्दोषों को वापस लाए और नागरिकता निर्धारण को पारदर्शी और मानवीय बनाए। एक लोकतंत्र वही होता है जो अपने सबसे कमज़ोर नागरिक की भी सुन सके — वरना इतिहास उसे क्षमा नहीं करता।