भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत की जैव विविधता केवल प्राकृतिक धरोहर नहीं है, बल्कि यह देश की आर्थिक और पारिस्थितिक स्थिरता का एक शक्तिशाली आधार भी है। भारत, जो विश्व के कुल जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक प्रमुख केंद्र है, 2047 तक आत्मनिर्भर और समुत्थानशील राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर है। इस यात्रा में जैव विविधता एक रणनीतिक संपत्ति के रूप में कार्य कर सकती है—जो पारिस्थितिक संतुलन, आर्थिक लाभ और सामाजिक समावेशिता को एक साथ साधने की क्षमता रखती है। यह सच है कि भारत की प्राकृतिक पूंजी—उसके वन, जल, पशु-पक्षी और पारंपरिक ज्ञान—हर वर्ष अरबों डॉलर की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ प्रदान करती है। जैव विविधता न केवल व्यापार युद्धों और संसाधन संकट के समय में सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि ग्रामीण और तटीय आजीविकाओं को भी स्थायित्व देती है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में, जहाँ वनों की कटाई और प्रजातियों की विलुप्ति तेजी से बढ़ रही है, जैव विविधता का संरक्षण न केवल एक अंतरराष्ट्रीय दायित्व है, बल्कि यह दीर्घकालिक राष्ट्रीय समृद्धि की पूर्वशर्त भी है। जैव विविधता से भारत को कृषि, वानिकी, मत्स्य पालन और औषधीय संसाधनों जैसे अनेक क्षेत्रों में सीधा आर्थिक लाभ प्राप्त होता है: वानिकी क्षेत्र भारत के जी डी पी में लगभग 1% का योगदान देता है, और 20 करोड़ से अधिक लोग वनों पर निर्भर हैं।मत्स्य पालन लगभग 3 करोड़ लोगों की आजीविका का साधन है, विशेषकर ग्रामीण व तटीय क्षेत्रों में।भारत की औषधीय पादप विविधता, जिसमें 45,000 से अधिक पादप प्रजातियाँ शामिल हैं, पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद की रीढ़ हैं।इन क्षेत्रों में जैव विविधता का संरक्षण न केवल आजीविका को सुनिश्चित करता है, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता भी प्रदान करता है। वन और जैव विविध पारिस्थितिकी तंत्र कार्बन पृथक्करण और जलवायु परिवर्तन शमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:भारत के वन हर वर्ष ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 11% बेअसर करते हैं।हरित भारत मिशन जलवायु सहिष्णुता बढ़ाने के लिये पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन की दिशा में कार्य कर रहा है। जैव विविधता का संरक्षण जलवायु संकट से लड़ने का एक मौलिक और लागत प्रभावी उपाय बनता जा रहा है।भारत में चावल की 50,000 और ज्वार की 5,000 किस्मों जैसी फसल विविधता इसे जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाती है। यह आनुवंशिक विविधता फसल उत्पादन को स्थायित्व प्रदान करती है और कीटों तथा रोगों के प्रति प्रतिरोध बढ़ाती है, जिससे खाद्य सुरक्षा सुदृढ़ होती है। कृषि जैव विविधता के संरक्षण से भारत की कृषि आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो सकती है।जैव विविधता पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं जैसे परागण, जल शुद्धिकरण, मृदा उर्वरता और बाढ़ नियंत्रण में सहायक है। उदाहरणस्वरूप: आर्द्रभूमियाँ मत्स्य पालन और बाढ़ नियंत्रण में योगदान देती हैं। मैंग्रोव वन, विशेषकर सुंदरवन में, तटीय समुदायों को चक्रवात और तूफानों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। 25 करोड़ लोग समुद्र तट के 50 किमी दायरे में रहते हैं, जो जैव विविधता-आधारित पारिस्थितिकीय सेवाओं पर निर्भर हैं। भारत का पारिस्थितिकी पर्यटन उद्योग जैव विविधता संरक्षण और स्थानीय अर्थव्यवस्था दोनों को सुदृढ़ करता है। पश्चिमी घाट, सुंदरवन, और अमूर फाल्कन जैसे संरक्षण स्थल न केवल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों के लिए आय के साधन भी बनते हैं। जैव विविधता भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में गहराई से निहित है। पवित्र उपवन जैसे "देव वन", "सरना" और "देवराकाडु" स्थानीय समुदायों द्वारा संरक्षित किये जाते हैं और वे वनस्पतियों व जीवों के संरक्षण में योगदान देते हैं। ये क्षेत्र संस्कृति और जैव विविधता दोनों के संरक्षण के सेतु बनते हैं। भारत की जैव विविधता आज कई गंभीर खतरों का सामना कर रही है:जलवायु परिवर्तन से हिमालयी और पश्चिमी घाट जैव विविधता हॉटस्पॉट अत्यधिक संवेदनशील हो गए हैं।आक्रामक प्रजातियाँ जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा और अफ़्रीकी सेब घोंघा स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों को बाधित कर रही हैं।प्रदूषण, अवैध शिकार, और आवास विखंडन जैसे कारकों के कारण जैव विविधता तेजी से घट रही है।अनियमित विकास परियोजनाएँ, जैसे कि ग्रेट निकोबार परियोजना, संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों को खतरे में डाल रही हैं।इन खतरों से निपटने के लिए नीति, प्रवर्तन और समुदायों की भागीदारी की सशक्त रणनीति आवश्यक है।भारत जैव विविधता को अपनी आर्थिक संरचना में एकीकृत करके दीर्घकालिक लाभ प्राप्त कर सकता है:प्राकृतिक पूंजी लेखांकन को राष्ट्रीय नीति में स्थान देना चाहिए।प्रकृति-आधारित समाधान जैसे शहरी वन, मैंग्रोव पुनर्स्थापन और आर्द्रभूमि संरक्षण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।जैव विविधता अनुकूल कृषि को बढ़ावा देकर खाद्य सुरक्षा और सतत विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।बौद्धिक संपदा संरक्षण, विशेषकर पारंपरिक ज्ञान आधारित औषधीय संसाधनों के लिए, आय सृजन और अधिकार सुरक्षा दोनों में सहायक होगा।सी एस आर के माध्यम से कॉर्पोरेट निवेश को जैव विविधता संरक्षण से जोड़ा जा सकता है। अंत में हम कह सकते हैं कि भारत की जैव विविधता केवल एक पारिस्थितिकीय उत्तरदायित्व नहीं है, बल्कि यह आर्थिक, सामाजिक और रणनीतिक अवसरों का आधार भी है। यदि भारत 2047 तक आत्मनिर्भर और सतत राष्ट्र बनना चाहता है, तो उसे जैव विविधता को केंद्र में रखकर नीतियाँ बनानी होंगी—ऐसी नीतियाँ जो पारंपरिक ज्ञान, आधुनिक विज्ञान और समावेशी विकास को साथ लेकर चलें। एक हरित, समृद्ध और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में जैव विविधता की भूमिका अनिवार्य है। इसे केवल विरासत के रूप में नहीं, बल्कि भविष्य की समृद्धि के संसाधन के रूप में देखना होगा।