भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत की औद्योगिक विकास दर वर्ष 2025 में मात्र 4% पर पहुँच गई है—यह पिछले चार वर्षों का न्यूनतम स्तर है। यह गिरावट वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताओं, खनन एवं विनिर्माण क्षेत्रों में गिरावट तथा निर्यात में सुस्ती के चलते आई है। खासकर MSME सेक्टर पर दबाव बना हुआ है, जो देश के कुल निर्यात का लगभग 45% योगदान करता है। ऐसे में औद्योगिक पुनर्जीवन आज केवल आर्थिक प्राथमिकता नहीं, बल्कि रणनीतिक आवश्यकता बन गया है।आइये समझते हैं औद्योगिक विकास को प्रेरित करने वाले प्रमुख घटकों को। भारत सरकार ने "मेक इन इंडिया", "आत्मनिर्भर भारत" और उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना जैसी पहलों से विनिर्माण क्षेत्र को गति देने का प्रयास किया है। इन योजनाओं ने निवेश आकर्षित करने, रोजगार सृजन, और भारत को वैश्विक विनिर्माण हब बनाने की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभाई है।पी एल आई योजना के चलते पिछले दशक में विनिर्माण क्षेत्र में एफ डी आई प्रवाह 69% बढ़ा और यह ₹14.45 लाख करोड़ (यू एस डॉलर165.1 बिलियन) तक पहुँच गया। राष्ट्रीय विनिर्माण मिशन का लक्ष्य जी डी पी में विनिर्माण की हिस्सेदारी को 2025 तक 25% तक बढ़ाना है। वित्त वर्ष 2023-24 में भारत का घरेलू निवेश ₹37 लाख करोड़ तक पहुँच गया, जो उद्योगों में बढ़ते विश्वास को दर्शाता है। साथ ही, ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में एफ डी आई में वृद्धि हुई है। भारत का ऑटोमोबाइल क्षेत्र वैश्विक कंपनियों के लिये आकर्षण का केंद्र बन रहा है, विशेषकर ई वी निर्माण में। इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में 2015 से 2024 तक 17.5% की सी ए जी आर दर्ज की गई है।भारत की विनिर्माण इकाइयाँ तेजी से ए आई, आई ओ टी, स्वचालन और रोबोटिक्स जैसी उन्नत तकनीकों को अपना रही हैं। इससे उत्पादन दक्षता और प्रतिस्पर्द्धात्मकता में उल्लेखनीय सुधार आया है। एच एस बी सी मैन्युफैक्चरिंग पी एम आई मार्च 2024 में 59.1 रहा, जो 16 वर्षों में सर्वोच्च स्तर है। "मेक इन इंडिया 2.0" पहल के अंतर्गत तकनीक-सक्षम एस एम ई हब की स्थापना की जा रही है। भारत का मध्यम वर्ग 2030 तक वैश्विक उपभोग का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा बनने वाला है। इस समूह की क्रय शक्ति ऑटोमोबाइल, एफ एम सी जी, स्मार्ट डिवाइसेज़ और दवाओं जैसी वस्तुओं की माँग को आगे बढ़ा रही है।उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं का विकास वित्त वर्ष 2025 में 8% पर पहुँच गया, जो वित्त वर्ष 2024 में 3.6% था। भारत का मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट अप्रैल-दिसंबर 2024 में 6% बढ़ा। भारत सरकार की पी एम गति शक्ति योजना, स्मार्ट सिटी मिशन, भारतमाला योजना और पी एम आवास योजना जैसी पहलों ने औद्योगिक अवसंरचना को मजबूत किया है।कच्चे इस्पात उत्पादन में अप्रैल-नवंबर 2025 के दौरान 3.3% की वृद्धि दर्ज की गई। सीमेंट उद्योग को राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलवे परियोजनाओं से नया जीवन मिला है। भारत की रणनीतिक स्थिति इसे इंडो-पैसिफिक और यूरोपीय बाज़ारों से जोड़ती है। देश इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों में वैश्विक निर्यात केंद्र बनने की दिशा में अग्रसर है। वित्त वर्ष 2024 में भारत का मोबाइल निर्यात 5 बिलियन डॉलर तक पहुँचा, जो 92% की वृद्धि दर्शाता है।राष्ट्रीय रसद नीति और मल्टी-मोडल हब परियोजनाओं के माध्यम से लॉजिस्टिक्स लागत घटाने के प्रयास जारी हैं। भारत ने स्वच्छ ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों और सौर ऊर्जा को औद्योगिक विकास का अभिन्न अंग बना लिया है। केंद्रीय बजट 2025-26 में ₹20,000 करोड़ की राशि परमाणु व सौर परियोजनाओं के लिये आवंटित की गई। पी एम ई-ड्राइव योजना के चलते ई वी क्षेत्र में अभूतपूर्व उछाल देखा गया है।गर हम बात करें औद्योगिक विकास में बाधाएँ और संरचनात्मक चुनौतियों की तो मुद्रास्फीति, टैरिफ युद्ध और आपूर्ति शृंखला अवरोधों ने भारतीय उद्योगों को प्रभावित किया है। आई एम एफ ने भी भारत की 2025-26 की विकास दर को घटाकर 6.2% कर दिया है। अमेरिका के टैरिफ्स से भारत को डॉलर 14 बिलियन का निर्यात घाटा हो सकता है। चीन से आयात पर निर्भरता भी आपूर्ति सुरक्षा के लिये खतरा है। शहरी विकास के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में क्रय शक्ति कमजोर बनी हुई है। ग्रामीण उपभोग में गिरावट से एफ एम सी जी, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि उपकरण उद्योग प्रभावित हो रहे हैं। दिसंबर 2024 में ग्रामीण खाद्य मुद्रास्फीति 8.65% रही, जबकि शहरी दर 7.9% थी। बचत की प्रवृत्ति बढ़ने से विवेकाधीन खर्च में कटौती हुई है। यद्यपि कई सुधार किए गए हैं, फिर भी रसद लागत ऊँची है। भारत में लॉजिस्टिक्स लागत अब भी जी डी पी का 14-18% है, जबकि विकसित देशों में यह 8-10% के बीच है। औद्योगिक गलियारों, एम एम एल पी और समर्पित फ्रेट कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं को समय पर पूर्ण करना आवश्यक है। एम एस एम ई सेक्टर को कई बार अनुमति, रजिस्ट्रेशन और टैक्स अनुपालन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” में भारत की रैंकिंग में सुधार के बावजूद जमीनी स्तर पर सुधार अपेक्षित है।भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण मंजूरी और श्रम कानूनों के सरलीकरण की आवश्यकता है।एकल खिड़की प्रणाली का क्रियान्वयन अधिकांश राज्यों में अभी प्रारंभिक अवस्था में है। यह भी सच है कि भारत के 60 मिलियन एम एस एम ई लगभग 25 करोड़ नौकरियाँ प्रदान करते हैं। इन्हें संरचनात्मक समर्थन देना न केवल आवश्यक है, बल्कि दीर्घकालिक विकास के लिये अनिवार्य भी।क्रेडिट गारंटी फंड, डिजिटल क्रेडिट रेटिंग और ई-मार्केटप्लेस को सरल बनाया जाना चाहिए।निर्यात उन्मुख एम एस एम ई के लिये विशेष ज़ोन और क्लस्टर आधारित रणनीति अपनाई जा सकती है। भारत को इनोवेशन ड्रिवन इकॉनमी बनाना होगा। इसके लिये अनुसंधान एवं विकास में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र को अधिक निवेश करना होगा।स्टार्टअप इंडिया, एटलब इनोवेशन मिशन, और डिजिटल स्किलिंग प्लेटफॉर्म्स को उद्योगों से जोड़ा जाए। स्किल इंडिया कार्यक्रम में ई वी, ए आई और ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग के लिये विशेष प्रशिक्षण मॉडल शामिल हों। 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के राष्ट्रीय संकल्प के अनुरूप, हरित औद्योगीकरण को प्राथमिकता दी जाए। ग्रीन टैक्स इंसेंटिव, ईको-फ्रेंडली फैक्ट्रियाँ और कार्बन क्रेडिट मार्केट की नीति को गति दी जाए। ईएसजी मेट्रिक्स को बड़े उद्योगों के साथ-साथ एम एस एम ई के लिये भी अनिवार्य किया जाए। अंत में कह सकते हैं कि भारत की औद्योगिक नीति को केवल उत्पादन बढ़ाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे नवाचार, संधारणीयता, रोजगार सृजन और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के साथ जोड़ना होगा। औद्योगिक विकास के साथ यदि हम समावेशिता, पर्यावरणीय जिम्मेदारी और क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करें, तो यह न केवल भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाएगा, बल्कि वैश्विक आपूर्ति शृंखला में भी देश को निर्णायक भूमिका में लाएगा। भारत की औद्योगिक पुनरुत्थान यात्रा अब विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है।