भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां एक ऐसे समय में जब देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव की लहरें उठने लगी हैं, जिनकी फिलहाल कतई जरूरत नहीं है। इन हालातों में मथुरा के वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी मंदिर ने सौहार्द और साझा सांस्कृतिक विरासत की मिसाल पेश करते हुए, उन हिंदुत्व संगठनों के आह्वान को ठुकरा दिया है जिन्होंने मुस्लिम कारीगरों और कर्मचारियों के बहिष्कार की मांग की थी। यह फैसला ऐसे वक्त में आया है जब देश का जनमानस कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को हुए भयावह आतंकी हमले से आहत है, जिसमें 26 निर्दोष नागरिकों की हत्या कर दी गई थी। आइये समझते हैं कि मंदिर प्रशासन ने आखिर कहा क्या है।मंदिर के पुजारी और प्रशासनिक समिति के सदस्य ज्ञानेंद्र किशोर गोस्वामी ने साफ किया कि मुसलमानों का बहिष्कार ‘व्यावहारिक नहीं’ है और न ही यह वृंदावन की साझा संस्कृति के अनुकूल है। उनका कहना था, "मुसलमानों, खासतौर पर कारीगरों और बुनकरों का यहां गहरा योगदान है। दशकों से वे भगवान बांके बिहारी के वस्त्रों और अलंकरण की रचना करते आ रहे हैं। इनमें से कई की भगवान में गहरी आस्था है और वे स्वयं मंदिर आते हैं।" याद रहे वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर, जो कि उत्तर भारत के सबसे पवित्र और लोकप्रिय मंदिरों में एक है, वहां पर देवताओं के मुकुट, वस्त्र, मालाएं आदि का निर्माण मुख्यतः मुस्लिम कारीगरों द्वारा किया जाता रहा है। ये लोग पारंपरिक हथकरघा और बुनाई से संबंधित कार्यों में निपुण हैं। यह कार्य केवल रोज़गार का साधन नहीं, बल्कि धार्मिक और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक भी है। विशेष अवसरों पर मंदिर में बजने वाला पारंपरिक नफीरी वाद्य यंत्र भी प्रायः मुस्लिम समुदाय के संगीतकारों द्वारा बजाया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बांके बिहारी मंदिर केवल धार्मिक आस्था का केंद्र ही नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की जीवित मिसाल भी है।इससे पहले भी कई बार इस प्रकार की कोशिशें हुई हैं जिन्हें समाज ने सिरे से नकार दिया है। मार्च 2025 में भी श्रीकृष्ण जन्मभूमि संघर्ष न्यास नामक एक हिंदुत्व संगठन ने मंदिर प्रशासन को एक ज्ञापन सौंपा था जिसमें मांग की गई थी कि भगवान के लिए मुस्लिम कारीगरों द्वारा बनाए गए वस्त्रों की खरीद बंद की जाए। परंतु मंदिर प्रशासन ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यह दर्शाता है कि बांके बिहारी मंदिर धार्मिक भावना को राजनीति और सांप्रदायिकता से ऊपर रखता है। गौरतलब है कि 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। खबरों के अनुसार, हमलावरों ने पीड़ितों की हत्या से पहले उनकी धार्मिक पहचान पूछी थी, जिससे देश के कई हिस्सों में सामाजिक तनाव और गुस्सा फैल गया। इसी पृष्ठभूमि में मथुरा और वृंदावन जैसे धार्मिक स्थलों में भी कुछ संगठनों ने मुस्लिम व्यापारियों और कर्मचारियों के बहिष्कार की मांग तेज़ कर दी। रिपोर्टों के मुताबिक, मथुरा और वृंदावन में सक्रिय कुछ हिंदुत्व समूहों ने हिंदू दुकानदारों और श्रद्धालुओं से अपील की कि वे मुस्लिम दुकानदारों से सामान न खरीदें और उनके दुकानों पर ‘मालिक का नाम’ स्पष्ट रूप से अंकित करने की मांग भी रखी। ये प्रयास स्पष्ट रूप से सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देने वाले थे। गोस्वामी ने स्पष्ट किया, "हम पहलगाम हमले की निंदा करते हैं और दोषियों को कड़ी सजा दिए जाने की मांग करते हैं। हम सरकार के साथ हैं, लेकिन वृंदावन में हिन्दू और मुस्लिम वर्षों से शांति और सद्भाव के साथ रहते आए हैं। इसे तोड़ने का प्रयास नहीं होना चाहिए।" यह भी सच है कि वृंदावन जैसे तीर्थस्थल केवल पूजा-अर्चना का स्थल नहीं हैं, बल्कि वे भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलता के प्रतीक हैं। यहां पर मुस्लिम कारीगरों द्वारा तैयार किए गए वस्त्रों को पहनाकर भगवान को सजाया जाना इस बात का जीवंत उदाहरण है कि धर्म और कारीगरी की साझेदारी कितनी पुरानी और गहरी है। समाज शास्त्रियों की राय है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। यह तथ्य भारत की न्याय प्रणाली बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों द्वारा भी कई बार दोहराया गया है। आतंकी संगठन धर्म की आड़ लेकर नफरत फैलाते हैं, जबकि असल में उनका उद्देश्य केवल अस्थिरता और असुरक्षा का माहौल पैदा करना होता है। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के जीवन, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 14, 15 और 21 धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को खारिज करता है। ऐसे में ‘मुस्लिम बहिष्कार’ जैसी अपील न केवल असंवैधानिक है बल्कि लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के भी खिलाफ है। दूसरी ओर भारत का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां मुस्लिम कारीगरों, संगीतकारों और कलाकारों ने हिंदू मंदिरों की शोभा बढ़ाई है। राजस्थान के पुष्कर मंदिर में ढोल बजाने वाले मुस्लिम कलाकारों से लेकर कांचीपुरम के मंदिरों में मूर्ति निर्माण में लगे मुस्लिम शिल्पियों तक — सांझी संस्कृति भारत की आत्मा रही है। इस पूरे प्रकरण में सोशल मीडिया ने भी एक अहम भूमिका निभाई। कुछ यूज़र्स ने मुसलमानों के बहिष्कार की अपील का समर्थन किया, वहीं कई लोगों ने बांके बिहारी मंदिर प्रशासन के फैसले की सराहना करते हुए इसे भारत की असली पहचान बताया। गर सरकार की बात करें तो हालांकि सरकार की ओर से इस मुद्दे पर कोई औपचारिक टिप्पणी नहीं आई है, लेकिन स्थानीय प्रशासन की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग और नागरिक संगठनों को आगे आकर सांप्रदायिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने वाले इस प्रकार के फैसलों को समर्थन देना चाहिए। अंत में कह सकते हैं कि जब देश में विभाजनकारी शक्तियां लोगों को धार्मिक आधार पर बाँटने का प्रयास कर रही हैं, बांके बिहारी मंदिर का यह फैसला एक सशक्त और प्रेरणादायक संदेश है। यह निर्णय दर्शाता है कि आस्था, श्रद्धा और संस्कृति राजनीति और कट्टरता से कहीं ऊपर हैं। मुस्लिम कारीगरों की मंदिर के प्रति आस्था, उनकी कला और योगदान को सम्मान देना ही सच्ची भारतीयता है।