भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां हाल ही में तमिलनाडु राज्यपाल आर.एन. रवि और राज्य सरकार के बीच टकराव के चलते सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। उच्चतम न्यायालय ने 10 अप्रैल 2025 को जो फैसला सुनाया, वह न केवल तमिलनाडु सरकार की जीत है, बल्कि समस्त राज्यों के अधिकारों की रक्षा करने वाली ऐतिहासिक व्यवस्था भी है। इतिहास गवाह है अक्सर किसी राज्य विशेष के राज्यपाल और वहां की राज्य सरकार के बीच टकराव की स्थिती वहां पैदा हो जाती है जहां पर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी कोई और हो और कथित राज्य सरकार कोई भिन्न पार्टी चला रही हो इतना ही नहीं उस राज्य में राज्यपाल पद पर किसी और या केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ पार्टी से ताल्लुक रखने वाला व्यक्ति विशेष आसीन हो। उच्चतम न्यायालय के हाल ही में उक्त विषय पर आये फैसले पर विशेषज्ञों की राय है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं है, यह भारत के संविधान, लोकतंत्र और संघीय ढांचे की पुष्टि है। यह संदेश स्पष्ट है – राज्यपालों को संविधान की सीमाओं में रहकर ही कार्य करना होगा और निर्वाचित सरकारों की स्वायत्तता का सम्मान अनिवार्य है। यह फैसला आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों के लिए दिशा-निर्देशक बनेगा और भारत के संघीय ताने-बाने को और अधिक मजबूत करेगा। आइये इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल आर.एन. रवि के व्यवहार और लंबित विधेयकों पर हस्ताक्षर न करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सरकार का आरोप था कि राज्यपाल संवैधानिक मर्यादा से बाहर जाकर नीतिगत मामलों में अड़चनें डाल रहे हैं। कई महत्वपूर्ण विधेयकों को महीनों से लटका कर रखा गया था – जिनमें विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति, पुलिस ट्रांसफर एवं प्रशासनिक फैसले शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की है कि ‘राज्यपाल क्लियरिंग हाउस नहीं हैं’। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि –“राज्यपाल कोई वैकल्पिक शक्ति नहीं हैं जो निर्वाचित सरकार की इच्छानुसार निर्णय टाल सकें या कानून बनाने की प्रक्रिया को बाधित कर सकें।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अंतर्गत राज्यपाल की भूमिका सलाहकारी और प्रक्रिया-संपन्न करने वाली है, न कि विधायिका को चुनौती देने वाली। आइये समझते हैं इस अहम केस से संबंधित फैसले के प्रमुख बिंदुओं को। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को भेजे गए विधेयकों पर "उचित समय" में निर्णय लिया जाना चाहिए। महीनों की देरी संघीय व्यवस्था के खिलाफ है।यदि कोई विधेयक दोबारा विधानसभा द्वारा पारित किया गया है, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी ही होगी – यह संवैधानिक बाध्यता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि राज्यपाल का पद राजनीतिक दखल के लिए नहीं, बल्कि निष्पक्ष संविधानपालक की भूमिका निभाने के लिए है।कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका को प्रशासनिक प्रक्रिया का हिस्सा बताते हुए उन्हें ‘क्लियरिंग हाउस’ करार देने की आलोचना की। याद रहे राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव कोई नया नहीं है, लेकिन तमिलनाडु में यह संघर्ष बेहद तीव्र हो गया। इसी प्रकार के कुछ प्रमुख विवादों पर गौर करें तो पायेंगे कि कुलपति नियुक्ति विवाद में राज्य सरकार चाहती थी कि विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति में राज्य की भूमिका सर्वोपरि हो, जबकि राज्यपाल ने नियुक्तियों को बार-बार रोका। इसी प्रकार नेशनल एजुकेशन पॉलिसी पर असहमति में तमिलनाडु सरकार NEP को लागू नहीं करना चाहती थी, जबकि राज्यपाल ने उसे बार-बार सार्वजनिक मंचों से लागू करने की वकालत की। बिलों की मंजूरी में देरी में 12 से अधिक विधेयक राज्यपाल कार्यालय में महीनों से लंबित थे, जिन पर न कोई मंजूरी दी गई थी और न ही अस्वीकृति। उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले पर राज्यों की प्रतिक्रिया में उन्होंने इस निर्णय का स्वागत किया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इसे “राज्य अधिकारों की जीत” करार दिया। केरल, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, दिल्ली और पंजाब जैसे अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इस निर्णय का समर्थन किया। इन राज्यों में भी राज्यपालों और निर्वाचित सरकारों के बीच अधिकारों को लेकर मतभेद समय-समय पर सामने आए हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने अब इन विवादों को एक दिशा दे दी है। आइये देखते हैं संविधान में राज्यपाल की भूमिका के बारे में। भारतीय संविधान राज्यपाल को एक ‘संवैधानिक प्रमुख’ के रूप में देखता है, न कि सक्रिय राजनीतिक हस्तक्षेपकर्ता के रूप में। अनुच्छेद 163 के अनुसार, राज्यपाल को मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होता है। हालांकि, व्याख्या के नाम पर कई बार राज्यपालों ने केंद्र सरकार के हित में कार्य कर निर्वाचित सरकारों की स्वायत्तता को चुनौती दी है। यह भी सच है कि संघवाद और केंद्रीय नियंत्रण आपस में एक दूसरे के सामने रहे हैं और इस पर लंबे समय से बहस चल रही है। इस फैसले ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया है कि भारत में ‘सहकारी संघवाद’ की अवधारणा को और अधिक मजबूती दी जानी चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार संविधान में निर्धारित हैं – लेकिन जब राज्यपाल केंद्र की मंशा के अनुसार कार्य करने लगते हैं, तब संघीय संतुलन बिगड़ता है। यह फैसला राज्यों के अधिकारों को मजबूती देने वाला है और संविधान के आत्मा के अनुकूल भी। दूसरी ओर पिछले कुछ वर्षों में राज्यपाल पद की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। विशेषकर गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों पर केंद्र सरकार के एजेंडे को थोपने का आरोप लगता रहा है। संविधान समीक्षा आयोग और सरकारिया आयोग भी इस पद की भूमिका की समीक्षा की वकालत कर चुके हैं। राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य की जाए, राज्यपाल का कार्यकाल स्पष्ट और नियमबद्ध हो, राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली न बनें – यह सुनिश्चित किया जाए। गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक मील का पत्थर है, लेकिन व्यवहार में बदलाव तभी आएगा जब संवैधानिक पदों की गरिमा बनी रहे, राज्यपाल निष्पक्षता से कार्य करें, राज्य सरकारों के जनादेश का सम्मान हो, राजनीतिक हितों की जगह संवैधानिक मर्यादा को प्राथमिकता मिले। अंत में कह सकते हैं कि तमिलनाडु मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं है, यह भारत के संविधान, लोकतंत्र और संघीय ढांचे की पुष्टि है। यह संदेश स्पष्ट है – राज्यपालों को संविधान की सीमाओं में रहकर ही कार्य करना होगा और निर्वाचित सरकारों की स्वायत्तता का सम्मान अनिवार्य है।