भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि आज जब भारत के चारों ओर के देश अस्थिरता, आंतरिक संघर्ष और कूटनीतिक चुनौती से जूझ रहे हैं, तब भारत की पारंपरिक "पड़ोस प्रथम" नीति पर पुनर्विचार आवश्यक हो गया है। म्यांमार में सैन्य संघर्ष, बांग्लादेश में सत्ता अस्थिरता, नेपाल की संवैधानिक चुनौतियाँ और श्रीलंका की आर्थिक रिकवरी जैसे संकटों ने पूरे दक्षिण एशिया को अनिश्चितता में डाल दिया है। इन सबके बीच भारत ने बीमस्टेक की थाईलैंड बैठक के दौरान म्यांमार में ‘ऑपरेशन ब्रह्मा’ जैसी पहल से सक्रिय नेतृत्व प्रदर्शित किया है, जो यह दिखाता है कि भारत अब केवल एक दर्शक नहीं, बल्कि संकटों में हस्तक्षेप करने वाला क्षेत्रीय नेतृत्वकर्ता बन रहा है। आइये बात करते हैं भारत की पड़ोस नीति की। स्वतंत्रता के बाद भारत की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सहयोग था। उस समय पाकिस्तान और चीन के साथ सीमित दृष्टिकोण ने कई असंतुलन पैदा किए। 1962 का भारत-चीन युद्ध और 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध भारत के लिये निर्णायक क्षण रहे। 1990 के बाद आर्थिक सुधारों के साथ भारत का झुकाव आर्थिक क्षेत्रीय सहयोग की ओर हुआ। "लुक ईस्ट" नीति के ज़रिये भारत ने एशियन और बीमस्टेक देशों से साझेदारी बढ़ाई। भारत की इस नीति में अफगानिस्तान से लेकर श्रीलंका तक के देशों के साथ आर्थिक, रणनीतिक और कूटनीतिक संबंधों को मज़बूती देने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन हाल के वर्षों में आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल और चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण इस नीति को नई दिशा देने की आवश्यकता सामने आई है। मौजूदा हालात में भारत की चिंताओं के बारे में गौर करें तो पायेंगे म्यांमार में जारी संघर्ष और सैन्य दमन ने भारत की पूर्वोत्तर सीमा को असुरक्षित बना दिया है। कलादान परियोजना जैसे क्षेत्रीय संपर्क कार्यक्रम बाधित हो रहे हैं। 2024 में बांग्लादेश की सत्ता में हुए बदलाव ने भारत-बांग्लादेश संबंधों पर अस्थायी असर डाला। द्विपक्षीय व्यापार और अवसंरचना सहयोग प्रभावित हुआ। नेपाल हाल के वर्षों में भारत और चीन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में रहा है। इससे भारत को अपनी नीतियों में लचीलापन लाना पड़ा है। हंबनटोटा बंदरगाह जैसी परियोजनाओं के ज़रिये चीन की मौजूदगी भारत के लिये रणनीतिक चिंता का विषय है। भारत ने आर्थिक सहायता और निवेश से श्रीलंका को संतुलित करने का प्रयास किया है। अब बात करते हैं चुनौतियों की। भारत को आज सबसे बड़ी चुनौती चीन से मिल रही है, जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से पाकिस्तान से लेकर श्रीलंका और बांग्लादेश तक अपने प्रभाव का विस्तार कर रहा है। चीन की बंदरगाह परियोजनाएँ भारत की "नील सागर नीति" और समुद्री सुरक्षा को चुनौती देती हैं। भारत ने ‘डायमंड ऑफ द नेकलेस’ जैसी रणनीति अपनाकर हिंद महासागर में अपनी सैन्य और कूटनीतिक उपस्थिति बढ़ाई है। फिर भी, पड़ोस में चीन की आर्थिक घुसपैठ से मुकाबला करने के लिये भारत को और अधिक आर्थिक निवेश और कूटनीतिक संलग्नता की ज़रूरत है। गर पड़ोसी देशों में अस्थिरता रहती है तो इसके कई प्रभाव देखने को मिलते हैं। जैसे सुरक्षा चिंताएँ- सी डी एस जनरल अनिल चौहान ने हाल ही में चेतावनी दी कि भारत की पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर अस्थिरता का सीधा असर देश की राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ता है। मानवीय संकट और प्रवासन-म्यांमार और बांग्लादेश की घटनाओं के चलते शरणार्थियों का भारत में आगमन हुआ है, जिससे मिज़ोरम और मणिपुर जैसे सीमावर्ती राज्यों पर बोझ बढ़ गया है। आर्थिक सहयोग पर असर- बांग्लादेश और म्यांमार की अस्थिरता ने भारत की 'एक्ट ईस्ट' नीति को प्रभावित किया है। क्षेत्रीय संपर्क परियोजनाएँ जैसे कलादान और भारत-म्यांमार-थाईलैंड राजमार्ग विलंबित हैं। आइये समझते हैं भारत की नीति में आवश्यक बदलावों को। भारत को सार्क की निष्क्रियता के बीच बीमस्टेक और आइओरा जैसे मंचों को सशक्त करना होगा। द्विपक्षीय संवाद को प्राथमिकता देना ज़रूरी है, खासकर उन देशों के साथ जो राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहे हैं। भारत को पड़ोसी देशों में बुनियादी ढाँचा और डिजिटल कनेक्टिविटी पर अधिक निवेश करना चाहिये। इससे आर्थिक सहयोग मज़बूत होगा और चीन का प्रभाव कम होगा। साझा सीमा प्रबंधन, आतंकवाद-निरोध, और समुद्री सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में पड़ोसियों के साथ सहयोग मज़बूत करना ज़रूरी है। ‘पब्लिक डिप्लोमेसी’ के माध्यम से भारत को यह स्पष्ट करना होगा कि वह अपने पड़ोसियों का भरोसेमंद और निष्पक्ष भागीदार है, न कि प्रभुत्व स्थापित करने वाला पड़ोसी। आर्थिक और व्यापार कूटनीति को पुनर्जीवित करना- दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते आर्थिक प्रभाव का मुकाबला करने के लिये, भारत को अधिक प्रभावी आर्थिक कूटनीति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जिसमें पड़ोसी देशों को व्यापार प्रोत्साहन, निवेश के अवसर और आसान ऋण की पेशकश शामिल हो। भारत-मेकांग सहयोग जैसे मंचों के माध्यम से व्यापार साझेदार के रूप में भारत की भूमिका को सुदृढ़ करने से क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा। भारत को डिजिटल और वित्तीय संपर्क बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उसके पड़ोसियों की भारत की तकनीकी एवं आर्थिक क्षमता तक अभिगम प्राप्त हो, जिससे बाह्य शक्तियों पर उनकी निर्भरता कम हो जाएगी।सांस्कृतिक समन्वय और लोगों के बीच संबंधों को बढ़ावा- भारत को अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों को गहरा करने के लिये अपनी सांस्कृतिक कूटनीति का विस्तार करना चाहिये तथा सद्भावना निर्माण के लिये अपने सभ्यतागत संबंधों का लाभ उठाना चाहिये। इसमें शैक्षिक आदान-प्रदान, पर्यटन और लोगों के बीच आपसी पहल को बढ़ावा देना शामिल है, जिससे आपसी समझ एवं सहयोग को बढ़ावा मिले। मीडिया सहयोग, सांस्कृतिक उत्सवों और शैक्षिक आदान-प्रदान जैसे सॉफ्ट पावर टूल्स को प्राथमिकता देकर भारत नकारात्मक धारणाओं को संतुलित कर सकता है तथा अपने पड़ोसियों के साथ दीर्घकालिक, स्थायी जुड़ाव सुनिश्चित कर सकता है। पारस्परिक सांस्कृतिक प्रशंसा को बढ़ावा देने के लिये एक सक्रिय दृष्टिकोण स्थायी द्विपक्षीय संबंधों की नींव रखेगा। अंत में कह सकते हैं कि आज भारत जिस भूराजनैतिक माहौल में है, वहाँ केवल ‘पड़ोसी प्रथम’ कह देना पर्याप्त नहीं। अब भारत को ‘पड़ोसी सहयोग’ के साथ-साथ ‘पड़ोसी स्थिरता’ को प्राथमिकता देनी होगी। क्षेत्रीय नेतृत्व के लिये भारत को न केवल चीन से रणनीतिक रूप से होड़ लेनी है, बल्कि अपने पड़ोसियों में भरोसे का वातावरण भी निर्मित करना है। इसके लिये आवश्यक है कि भारत नीतिगत स्पष्टता, कूटनीतिक लचीलापन और विकास सहयोग के सहारे अपनी पड़ोस नीति को पुनर्परिभाषित करे।