केंद्र की मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने की दिशा में सकारात्मक संकेत दिए हैं। लंबे समय से चली आ रही इस मांग पर अब राष्ट्रीय स्तर पर गंभीरता से विचार हो रहा है। सरकार के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार, सामाजिक और आर्थिक योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने के लिए जातिगत आंकड़ों का अद्यतन जरूरी माना जा रहा है।
भारत में पिछली बार औपचारिक जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। हालांकि 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) जरूर की गई थी, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए थे। अब देश में ओबीसी आरक्षण, संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण और सामाजिक न्याय की पारदर्शिता के लिए जातिगत आंकड़े जुटाने की आवश्यकता और भी प्रासंगिक हो गई है।
जातिगत जनगणना के पक्ष में तर्क दिया जा रहा है कि इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि कौन-से वर्ग अब भी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। इसके आधार पर नीतियों और योजनाओं का निर्माण अधिक सटीक और समावेशी ढंग से किया जा सकेगा।
विपक्षी दलों ने भी इस विषय पर लंबे समय से जोर दिया है, विशेष रूप से बिहार और तमिलनाडु जैसे राज्यों में जातिगत गणना की मांग ज़ोर पकड़ चुकी है। हाल ही में बिहार सरकार द्वारा कराई गई जातिगत गणना ने राष्ट्रीय स्तर पर बहस को और तेज कर दिया। ऐसे में केंद्र सरकार का यह रुख सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
हालांकि, कुछ वर्गों ने इस कदम पर सवाल भी उठाए हैं। उनका मानना है कि जातिगत आंकड़े सामने आने से सामाजिक विभाजन की संभावना बढ़ सकती है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह आंकड़े देश के वास्तविक सामाजिक ढांचे को जानने का माध्यम हैं, जिनके बिना समान विकास और न्यायसंगत नीतियां बनाना मुश्किल है।
यदि सरकार इसे औपचारिक रूप से मंजूरी देती है, तो यह फैसला भारतीय राजनीति और समाज के लिए ऐतिहासिक साबित हो सकता है। इससे सामाजिक कल्याण की योजनाएं अधिक लक्षित और प्रभावशाली बन सकेंगी।