भारत की न्याय व्यवस्था पर एक बार फिर सवाल खड़े हुए हैं, जब उत्तर प्रदेश के 104 वर्षीय लखन को 43 साल जेल में बिताने के बाद अदालत ने निर्दोष घोषित किया। यह मामला न सिर्फ कानूनी देरी का प्रतीक है, बल्कि मानवाधिकारों की अनदेखी का भी दर्दनाक उदाहरण बन चुका है।
लखन को 1982 में एक हत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई, लेकिन मुकदमे की जटिलताओं और कानूनी अपीलों की लंबी प्रक्रिया के चलते वह चार दशक से अधिक समय तक जेल में ही बंद रहे। इस दौरान उनकी उम्र ढलती रही, स्वास्थ्य बिगड़ता गया, लेकिन न्याय की गाड़ी रुक-रुक कर ही चलती रही।
अदालत द्वारा हाल ही में सबूतों के अभाव में लखन को निर्दोष करार दिया गया। यह निर्णय आते ही उनकी बेटी ने भावुक होकर कहा, “अब हमारे पिता सुकून से इस दुनिया से विदा हो सकेंगे।” यह बयान पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है कि समय पर न्याय न मिले तो वह अन्याय बन जाता है।
104 साल की उम्र में जब जीवन के अंतिम पड़ाव पर कोई व्यक्ति अपने परिवार से दूर, एकांत और कष्टकारी जेल में जीवन बिताता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं होती, बल्कि पूरे न्याय तंत्र की विफलता होती है।
यह मामला सरकार और न्यायपालिका के लिए चेतावनी है कि अदालती प्रक्रिया को तेज, पारदर्शी और मानवीय बनाना अब समय की मांग है। साथ ही, यह भी ज़रूरी है कि ऐसे मामलों की पहचान समय रहते की जाए और निर्दोषों को न्याय मिले — जीते जी।
लखन की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारी न्याय व्यवस्था वाकई समय पर न्याय दिलाने में सक्षम है? 43 साल बाद मिली आज़ादी उनके लिए एक राहत है, लेकिन वह समय और जीवन के वे पल जो उन्होंने जेल की चारदीवारी में बिताए, कभी वापस नहीं आ सकते।