जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की घड़ी नज़दीक आ रही है, प्रदेश में सियासी सरगर्मी तेज़ हो गई है। लेकिन इस बार केवल राजनीतिक दलों की तैयारियां ही नहीं, बल्कि निर्वाचन प्रक्रिया से जुड़ी कुछ प्रशासनिक गतिविधियाँ भी चर्चा के केंद्र में हैं। दरअसल, चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची (वोटर लिस्ट) के संशोधन, सत्यापन और दस्तावेज़ों की मांग को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। विपक्षी दलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और चुनावी पर्यवेक्षकों ने इस प्रक्रिया को "संदेहास्पद", "पूर्वाग्रही" और "राजनीतिक रूप से प्रेरित" करार दिया है।
क्या है मामला?
बिहार में अक्टूबर-नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव संभावित हैं। इससे पहले चुनाव आयोग द्वारा राज्यभर में मतदाता सूची का पुनरीक्षण कार्य जारी है। इस प्रक्रिया के तहत लोगों से पहचान और पते से संबंधित दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं। कई जगहों पर यह प्रक्रिया बेहद सख्ती से लागू की जा रही है, जिससे आम मतदाताओं में असमंजस और नाराज़गी देखने को मिल रही है।
जहाँ यह कदम निर्वाचन प्रक्रिया की पारदर्शिता सुनिश्चित करने का दावा करता है, वहीं कई संगठनों का मानना है कि यह चुनिंदा समुदायों और वर्गों को मतदाता सूची से बाहर रखने की 'सुनियोजित रणनीति' हो सकती है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ और आरोप
राजद, कांग्रेस, वाम दलों और AIMIM जैसे विपक्षी दलों ने इस प्रक्रिया पर गंभीर आपत्ति जताई है। उन्होंने आरोप लगाया है कि सत्तारूढ़ दल (BJP-JD(U) गठबंधन) के इशारे पर यह कार्य हो रहा है ताकि उनके परंपरागत वोट बैंक को चुनाव प्रक्रिया से बाहर किया जा सके।
तेजस्वी यादव ने कहा, "बिहार में यह वोटर लिस्ट संशोधन नहीं, बल्क मतदाता बहिष्कार का अभियान है। जिन बस्तियों में दलित, महादलित, मुस्लिम और पिछड़े वर्ग रहते हैं, वहां बिना सूचना के फॉर्म भरवाए जा रहे हैं और दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं।"
कांग्रेस नेता मदन मोहन झा ने निर्वाचन आयोग से हस्तक्षेप की मांग करते हुए कहा कि यह चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को प्रभावित करने वाला कदम है।
ग्राउंड रिपोर्ट: मतदाताओं की परेशानी
पटना, दरभंगा, कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर और सहरसा जैसे ज़िलों से कई शिकायतें सामने आई हैं। लोगों ने आरोप लगाया है कि बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) दस्तावेज़ों की माँग के नाम पर अनावश्यक रूप से घर-घर जाकर मतदाताओं को डराने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में विशेष रूप से मुस्लिम बहुल मोहल्लों और दलित बस्तियों में सघन जांच की खबरें हैं।
पूर्णिया के कासिम टोला में रहने वाली रहमतुन निशा, जो 60 वर्ष की हैं और दो दशकों से वोट डालती आ रही हैं, कहती हैं, "अब कह रहे हैं कि आधार कार्ड, राशन कार्ड और भूमि दस्तावेज़ दो। हम गरीब हैं, हमारे पास ज़मीन नहीं, क्या अब वोट देने का हक़ भी नहीं रहेगा?"
निर्वाचन आयोग की सफाई
चुनाव आयोग ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि यह प्रक्रिया एक नियमित "सार्वजनिक सत्यापन अभियान" का हिस्सा है, जिसे प्रत्येक चुनाव से पहले कराया जाता है। आयोग के अनुसार, यह प्रयास चुनावी रोल में मौजूद फर्जी नामों, डुप्लीकेट एंट्री और मृत व्यक्तियों के नामों को हटाने के उद्देश्य से हो रहा है।
मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी (बिहार) एच. राजनिवास ने मीडिया को बताया, “यह कार्य संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाए रखने की दिशा में उठाया गया कदम है। किसी वर्ग या समुदाय के विरुद्ध कार्रवाई का सवाल ही नहीं उठता।”
चिंताओं का आधार: NRC और CAA की छाया?
सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मतदाता सूची में इस तरह का कड़ा सत्यापन, विशेष रूप से दस्तावेज़ों की मांग, कहीं न कहीं नागरिकता संबंधी चिंताओं को जन्म देता है। बिहार जैसे राज्य में जहाँ जातीय और धार्मिक समीकरण बेहद संवेदनशील हैं, वहाँ इस प्रकार की प्रक्रिया को लेकर आशंकाएँ बढ़ना स्वाभाविक है।
साल 2019-20 में NRC (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) और CAA (नागरिकता संशोधन कानून) को लेकर देशभर में जो आंदोलन हुए थे, उनकी छाया अब फिर से दिख रही है। पटना विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री डॉ. विकास नारायण कहते हैं, "इस बार प्रक्रिया तकनीकी दिख रही है, पर इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव बेहद गंभीर हो सकते हैं।"
क्या यह मतदाता दमन है?
इस विषय पर चुनाव विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कुछ इसे निर्वाचन प्रक्रिया को शुद्ध और निष्पक्ष बनाने का तरीका मानते हैं, वहीं अन्य इसे ‘मतदाता दमन’ (Voter Suppression) की एक चाल मानते हैं।
पूर्व चुनाव आयुक्त एस.वाई. क़ुरैशी ने एक लेख में कहा था, "मतदाता सूची की शुद्धता आवश्यक है, लेकिन इसके नाम पर दस्तावेज़ों की इतनी जटिल माँग करना ग्रामीण और हाशिए पर रहने वाले लोगों को मतदान से वंचित करने जैसा है।"
डिजिटल असमानता भी एक बड़ी चुनौती
ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल जागरूकता की कमी और दस्तावेज़ीकरण की असमानता इस पूरी प्रक्रिया को और भी जटिल बना रही है। कई ऐसे मतदाता हैं जिनके पास न आधार कार्ड है, न जन्म प्रमाणपत्र और न ही स्थायी निवास का कोई स्पष्ट दस्तावेज़। ऐसे में BLO द्वारा मांगे गए दस्तावेज़ उनके लिए दिक्कत का कारण बनते हैं।
मुज़फ्फरपुर के एक ग्रामीण इलाके के शिक्षक नीलेश ठाकुर कहते हैं, "हमारे गांव में 30% लोगों के पास डिजिटल दस्तावेज़ नहीं हैं। मोबाइल नंबर या ईमेल तक नहीं। अब वोट देने के लिए ये सब मांगेंगे तो लोकतंत्र किसके लिए बचेगा?"
राजनीतिक संतुलन या रणनीतिक हस्तक्षेप?
चुनाव के ठीक पहले वोटर लिस्ट में संशोधन का यह समय भी सवालों के घेरे में है। अगर यह एक रूटीन प्रक्रिया होती, तो क्या इसे साल भर पहले नहीं किया जा सकता था? विपक्षी दलों का मानना है कि यह जानबूझकर किया गया समय निर्धारण है, ताकि संवेदनशील इलाकों में गड़बड़ी की जा सके।
JD(U) के प्रवक्ता ने आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहा, “चुनाव आयोग स्वतंत्र संस्था है। अगर कोई दस्तावेज़ मांग रहा है तो वह कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है, इसका राजनीतिकरण करना गैर-जिम्मेदाराना है।”
क़ानूनी और संवैधानिक पहलू
भारतीय संविधान के तहत 18 वर्ष या उससे अधिक उम्र का हर नागरिक, जिसके पास भारतीय नागरिकता है, मतदान का अधिकार रखता है। लेकिन पहचान पत्र और निवास प्रमाणपत्र की मांग ने इस मूल अधिकार के सामने ‘दस्तावेज़ों का बोझ’ खड़ा कर दिया है।
कानूनविद् प्रो. किरण त्रिपाठी कहती हैं, "अगर कोई व्यक्ति लगातार 6 महीने एक जगह रह रहा है और मानसिक रूप से सक्षम है, तो वह मतदाता सूची में नाम शामिल कराने का अधिकारी है। दस्तावेज़ों की अनिवार्यता उस भावना के विपरीत जाती है।"
विश्वास बनाम संदेह की लड़ाई
बिहार चुनाव 2025 के पहले यह वोटर लिस्ट रिवीजन केवल प्रशासनिक कार्यवाही नहीं रह गई, बल्कि यह अब लोकतंत्र, भागीदारी और निष्पक्षता के मूल प्रश्नों से जुड़ गई है। क्या यह मतदाता अधिकारों की रक्षा का उपाय है या मतदाताओं को किनारे लगाने की राजनीति?
जब देश का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने ही नागरिकों से बार-बार उनकी पहचान और हक़ मांगता है, तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या दस्तावेज़ लोकतंत्र पर भारी पड़ रहे हैं? और यदि हाँ, तो यह किस दिशा में हमें ले जाएगा?