देश की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली आज गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। पिछले पांच वर्षों में अरावली क्षेत्र में 27 हजार से अधिक अवैध खनन के मामले सामने आना न केवल पर्यावरणीय चेतावनी है, बल्कि प्रशासनिक तंत्र पर भी कई सवाल खड़े करता है। राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर से सटी अरावली पहाड़ियों में लगातार हो रहा अवैध खनन इस संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को धीरे-धीरे खोखला कर रहा है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अवैध खनन के अधिकांश मामले पत्थर, बजरी और निर्माण सामग्री से जुड़े हैं। बढ़ती शहरीकरण की मांग और रियल एस्टेट परियोजनाओं के दबाव ने अरावली को सबसे आसान शिकार बना दिया है। रात के अंधेरे में खनन, बिना अनुमति विस्फोट और नियमों को ताक पर रखकर पहाड़ियों को काटने की घटनाएं आम होती जा रही हैं। कई बार कार्रवाई होती है, जुर्माना लगता है, लेकिन खनन माफिया के हौसले कम नहीं हो रहे।
पर्यावरण विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अरावली का क्षरण केवल पहाड़ियों तक सीमित नहीं है। यह क्षेत्र दिल्ली-एनसीआर के लिए प्राकृतिक ढाल का काम करता है, जो रेगिस्तान के फैलाव को रोकने, भूजल रिचार्ज और वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाता है। अवैध खनन के कारण वन क्षेत्र सिमट रहा है, जलस्रोत सूख रहे हैं और जैव विविधता पर सीधा असर पड़ रहा है। इसका नतीजा यह है कि गर्मी में तापमान बढ़ रहा है और मानसून के दौरान जलभराव और कटाव की समस्या भी गंभीर हो रही है।
सरकारें समय-समय पर अरावली संरक्षण के दावे करती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश, ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश और राज्य स्तर पर सख्त कानून भी बनाए गए, लेकिन जमीनी हकीकत अलग तस्वीर पेश करती है। स्थानीय स्तर पर निगरानी की कमी, संसाधनों का अभाव और कथित मिलीभगत के आरोप संरक्षण प्रयासों को कमजोर कर रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि केवल कार्रवाई और जुर्माने से समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके लिए पारदर्शी निगरानी तंत्र, ड्रोन और सैटेलाइट से निगरानी, स्थानीय समुदाय की भागीदारी और वैकल्पिक आजीविका के अवसर जरूरी हैं। अरावली को बचाना सिर्फ पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से जुड़ा सवाल है। अगर अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो अरावली का यह कड़वा सच और भी भयावह रूप ले सकता है।