बिहार का सीमांचल क्षेत्र इन दिनों सियासी हलचल का केंद्र बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मिशन सीमांचल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी का दौरा और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी ने इस इलाके की राजनीति को और पेचीदा बना दिया है। वजह साफ है—यहां की 24 विधानसभा सीटें मुस्लिम बहुल हैं और इन्हीं पर भविष्य की राजनीति की बिसात बिछ रही है।
बीजेपी के लिए सीमांचल किसी चुनौती से कम नहीं है। पारंपरिक रूप से यहां अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव महागठबंधन या एआईएमआईएम जैसी पार्टियों की ओर रहा है। बावजूद इसके, मोदी सरकार लगातार विकास योजनाओं और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं को आगे रखकर जनता का भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री ने हालिया रैली में सीमांचल के पिछड़ेपन को दूर करने और इसे राज्य के विकास का इंजन बनाने का संकल्प जताया।
इधर, राहुल गांधी का दौरा विपक्षी एकजुटता का संदेश देता है। कांग्रेस और राजद, दोनों मिलकर इस इलाके में बीजेपी के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं। राहुल ने अपनी सभाओं में रोजगार, शिक्षा और महंगाई जैसे मुद्दों को उठाया और केंद्र सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगाया।
ओवैसी फैक्टर इस चुनावी गणित को और दिलचस्प बना देता है। एआईएमआईएम ने सीमांचल की कई सीटों पर पहले भी बेहतर प्रदर्शन किया है और उनका वोट बैंक सीधा विपक्ष की परंपरागत पकड़ को कमजोर करता है। इस बार भी ओवैसी का संगठन अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में सक्रिय दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या उनका वोट काटने का असर बीजेपी को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा पहुंचा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सीमांचल में मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है—बीजेपी विकास और केंद्र सरकार की योजनाओं के सहारे मैदान में है, विपक्ष सामाजिक न्याय और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर लड़ रहा है, जबकि ओवैसी अल्पसंख्यक अस्मिता को केंद्र में रखकर अपनी जमीन मजबूत करने की कोशिश में हैं।
इन 24 सीटों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि बिहार की सियासत में अक्सर सीमांचल का रुख ही सत्ता की तस्वीर तय करता है। फिलहाल, यह कहना जल्दबाजी होगी कि बीजेपी यहां "कमल" खिला पाएगी या नहीं, लेकिन इतना तय है कि मिशन सीमांचल ने राज्य की राजनीति को गर्मा दिया है।