भारत की दवा उद्योग, जिसे कभी “फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड” कहा जाता था, आज गंभीर सवालों के घेरे में है। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, देश में हर तीन घंटे में एक दवा गुणवत्ता परीक्षण में असफल हो रही है। यह चिंताजनक आँकड़ा न सिर्फ़ औषधि नियामक व्यवस्था पर सवाल उठाता है, बल्कि आम नागरिकों की सेहत को भी गहरे संकट में डालता है।
पिछले कुछ वर्षों में कफ सिरप, एंटीबायोटिक, पेनकिलर और विटामिन कैप्सूल जैसे रोज़मर्रा के उपयोग वाली कई दवाएं जांच में फेल पाई गई हैं। खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश दवाएं सरकारी अस्पतालों और ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में उपयोग की जाती हैं। भारतीय औषधि नियंत्रण संगठन (CDSCO) की 2025 की ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि नमूना परीक्षण में लगभग 3.7% दवाएं मानक पर खरी नहीं उतरीं। यह प्रतिशत देखने में भले ही छोटा लगे, लेकिन देश की विशाल आबादी को देखते हुए यह संख्या लाखों मरीजों को प्रभावित करती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि दवाओं के निर्माण और वितरण में पारदर्शिता की कमी, निगरानी तंत्र की कमजोरी और नकली दवाओं का बढ़ता जाल इस समस्या के मुख्य कारण हैं। छोटे पैमाने की दवा इकाइयाँ सस्ती दर पर उत्पादन के लिए गुणवत्ता से समझौता कर रही हैं। दूसरी ओर, निर्यात के लिए बनाई गई दवाएं अक्सर अंतरराष्ट्रीय मानकों पर पास हो जाती हैं, जबकि घरेलू बाजार के लिए बनी दवाओं में लापरवाही देखने को मिलती है।
कफ सिरप से जुड़ी घटनाओं ने तो भारत की अंतरराष्ट्रीय साख को भी नुकसान पहुंचाया है। 2023 में अफ्रीका और एशिया के कुछ देशों में भारतीय सिरप से बच्चों की मौत के मामले सामने आए थे, जिसके बाद WHO ने कई बार सख्त चेतावनी जारी की।
अब सरकार ने “राष्ट्रीय औषधि सुरक्षा निगरानी मिशन” के तहत नई रणनीति शुरू की है, जिसमें दवा निर्माण इकाइयों का डिजिटल ऑडिट, बैच-टू-बैच ट्रैकिंग और सार्वजनिक रिपोर्टिंग व्यवस्था शामिल की जा रही है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि दवा गुणवत्ता पर भरोसा तभी लौटेगा जब परीक्षण और कार्रवाई में किसी तरह की देरी या राजनीतिक दबाव नहीं रहेगा।
भारत के लिए अब यह केवल आर्थिक या औद्योगिक चुनौती नहीं, बल्कि “जनस्वास्थ्य की सुरक्षा” का सवाल बन गया है।