दिल्ली में क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम वर्षा की योजना इस बार अपेक्षित सफलता नहीं पा सकी। ३० अक्टूबर २०२५ को राज्य सरकार ने IIT Kanpur से मिलकर इस अभियान को लागू किया था, लेकिन विभिन्न कारणों से यह असफल साबित हुई।
सबसे बड़ी समस्या थी मौसम-वशिष्टताएं। अध्ययन बताते हैं कि क्लाउड सीडिंग तभी सफल हो सकती है जब बादलों में पर्याप्त नमी हो, हवा की गति कम हो और वर्षा-योग्य बादल मौजूद हों। दिल्ली-एनसीआर के क्षेत्र में हाल में बादल थे, लेकिन उनमें नमी मात्र १५–२० % के बीच थी—जबकि इस तरह के प्रयोगों के लिए कम-से-कम ५० % नमी की आवश्यकता मानी जाती है।
इसके अतिरिक्त, मौसम पूर्वानुमान में आने वाली अनिश्चितताएं और उपयुक्त बादल अवस्था का अभाव भी महत्वपूर्ण कारण रहे। जैसे ही इस कमी का पता चला, IIT Kanpur ने आगे के संस्करणों को रोक दिया।
योजना को कार्यान्वित करने में प्रौद्योगिकीय व वित्तीय चुनौतियां भी सामने आईं। पहली बार दिल्ली में बड़े पैमाने पर क्लाउड सीडिंग कार्रवाई की गई थी, जिसमें विमान से सिल्वर आयोडाइड व अन्य क्लाउड-सिडिंग सामग्री छोड़ी गई। परीक्षण के लिए लगभग ₹१.२ करोड़ से ज़्यादा खर्च किए गए थे, जो कि जोखिम को दिखाते हैं।
और अंत में, प्रभाव की अस्थायी प्रकृति भी स्पष्ट हुई। विशेषज्ञों का कहना है कि क्लाउड सीडिंग यदि काम भी करे, तो यह सिर्फ कुछ घंटों-दिनों तक राहत दे सकती है, जबकि दिल्ली में वायु-प्रदूषण की समस्या जटिल और दीर्घकालीन है।
नतीजतन, दिल्ली में इस प्रयास का प्रत्यक्ष परिणाम वर्षा के रूप में शनिवार तक नहीं दिखा और वायु गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ श्रेणी में बनी रही।
कहा जा सकता है कि क्लाउड सीडिंग कोई जादुई समाधान नहीं है — यह तभी काम करती है जब मौसम-शर्तें पूरी हों। दिल्ली जैसे क्षेत्र में जहाँ प्रदूषण की जड़ें वाहन-उत्सर्जन, निर्माण धूल, पराली जलना जैसी जटिल समस्याओं से जुड़ी हैं, वहाँ इस तरह की तात्कालिक तकनीक स्थायी सुधार का विकल्प नहीं बन सकती।