उत्तर भारत में मानसून की कमी और सूखे जैसी स्थिति के बीच क्लाउड सीडिंग को बारिश लाने के "वैज्ञानिक चमत्कार" के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। लेकिन हाल ही में सामने आई IIT कानपुर की रिपोर्ट ने इस प्रयोग की प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया कि जिन इलाकों में क्लाउड सीडिंग की गई, वहां वर्षा में कोई ठोस वृद्धि दर्ज नहीं की गई, बल्कि कई स्थानों पर प्राकृतिक वर्षा की मात्रा और भी कम रही।
सरकारी एजेंसियों ने क्लाउड सीडिंग के जरिए मौसम को नियंत्रित करने का दावा किया था, जिसके तहत विशेष विमानों से बादलों में सिल्वर आयोडाइड और सोडियम क्लोराइड जैसे रसायन छोड़े गए। उद्देश्य था— कृत्रिम रूप से बारिश बढ़ाना और सूखे की स्थिति में राहत पहुंचाना। लेकिन अब आधिकारिक आंकड़ों और ग्राउंड रिपोर्ट्स में बड़ा अंतर देखने को मिला है।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में किए गए इस प्रयोग के दौरान स्थानीय मौसम विभाग ने बारिश का औसत 15–20 प्रतिशत कम दर्ज किया। वहीं, कृषि विभाग के अनुसार किसानों को उम्मीद के अनुरूप लाभ नहीं मिला। कई विशेषज्ञों ने आरोप लगाया है कि “डेटा प्रेजेंटेशन” में ऐसी तकनीक अपनाई गई जिससे परिणाम बेहतर दिखाए जा सकें।
IIT कानपुर के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि क्लाउड सीडिंग का असर अल्पकालिक और सीमित होता है। उन्होंने कहा— “क्लाउड सीडिंग से तभी परिणाम मिलते हैं जब वायुमंडल में नमी पर्याप्त हो। केवल तकनीक के भरोसे मौसम नहीं बदला जा सकता।”
दूसरी ओर, परियोजना से जुड़े कुछ अधिकारियों का कहना है कि प्रयोगात्मक चरण में त्रुटियां सामान्य हैं, और आने वाले समय में बेहतर तकनीक से नतीजे सुधार सकते हैं।
फिलहाल इस रिपोर्ट ने सरकार की “क्लाइमेट इंटरवेंशन स्ट्रैटेजी” पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के बीच क्लाउड सीडिंग जैसी तकनीकों पर पारदर्शिता और स्वतंत्र मूल्यांकन जरूरी है।
क्या यह बारिश का विज्ञान है या आंकड़ों की जादूगरी—यह सवाल अब नीति निर्माताओं और वैज्ञानिकों दोनों के सामने खुला है।