भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार प्रदान करता है, परंतु मौजूदा हालात में यथार्थ में न्याय प्राप्ति एक चुनौती बनती जा रही है। भारत की न्याय प्रणाली आज एक ऐसे संकट से गुजर रही है, जहाँ लंबित मामलों का बोझ, न्यायिक संसाधनों की भारी कमी, और सीमांत वर्गों की न्याय तक सीमित पहुँच जैसी समस्याएँ प्रणाली को निष्क्रिय बना रही हैं। देश की अदालतें पाँच करोड़ से अधिक लंबित मामलों से जूझ रही हैं, वहीं पुलिस व कारागारों में खाली पदों की भरमार है। इस स्थिति में न्याय प्रणाली का पुनर्जीवन केवल एक प्रशासनिक अनिवार्यता नहीं बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को बचाए रखने का प्रयास है।आइये समझते हैं इसके संस्थागत ढाँचे और इसकी संरचनात्मक चुनौतियों के बारे में। भारत की न्याय प्रणाली सात प्रमुख संस्थागत स्तंभों पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायालय:अनुच्छेद 124 के तहत स्थापित सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याता है। यह मूल, अपीलीय और सलाहकार अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है। देश के मुख्य न्यायाधीश और 33 अन्य न्यायाधीशों की यह पीठ अंतिम न्यायिक सहारा है।उच्च न्यायालय:राज्य स्तर पर कार्यरत 25 उच्च न्यायालयों के पास दीवानी और आपराधिक मामलों पर मूल एवं अपीलीय अधिकार है। कुछ उच्च न्यायालय एक से अधिक राज्यों को सेवाएँ देते हैं।अधीनस्थ न्यायालय:जिला एवं सत्र न्यायालय भारत की न्याय प्रणाली की रीढ़ माने जाते हैं। न्यायिक दृष्टि से उच्च न्यायालय के अधीन होते हुए भी इनका प्रशासन राज्य सरकारों के नियंत्रण में होता है।पुलिस एवं कानून प्रवर्तन तंत्र: पुलिस व्यवस्था 1861 के पुलिस अधिनियम पर आधारित है। राज्य अपने-अपने पुलिस बलों का संचालन करते हैं जबकि सी बी आई, एन आई ए, ई डी जैसी एजेंसियाँ राष्ट्रीय स्तर पर काम करती हैं।अभियोजन प्रणाली: सरकारी अभियोजकों का कार्य अभियोजन पक्ष को प्रस्तुत करना होता है, जो अक्सर पुलिस के साथ तालमेल की कमी और स्वायत्तता के अभाव से जूझते हैं।कारागार प्रशासन:
कारागार राज्य सूची का विषय है। वर्ष 1894 का कारागार अधिनियम और राज्य स्तरीय मैनुअल इस क्षेत्र को नियंत्रित करते हैं। विचाराधीन कैदियों की अधिकता व्यवस्था की अक्षमता को दर्शाती है।विधिक सहायता तंत्र: एन ए एल एस ए, एस एल एस ए और डी एल एस ए जैसे निकायों को कमजोर, वंचित वर्गों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने का कार्य सौंपा गया है। आईए बात करते हैं न्याय प्रणाली से जुड़ी प्रमुख समस्याओं के बारे में। देश में पाँच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं और वर्ष 2026 तक इनकी संख्या 6 करोड़ पार कर सकती है (इंडिया जस्टिस रिर्पोट 2025)। सर्वोच्च न्यायालय में भी 80,000 से अधिक मामले लंबित हैं। यह न्यायिक निष्क्रियता का संकेत है, जिससे विधि के शासन की धारणा कमज़ोर होती है। न्यायपालिका, पुलिस और कारागारों में चार में से एक पद रिक्त है। भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर मात्र 15 न्यायाधीश हैं, जबकि विधि आयोग (1987) ने यह संख्या 50 बताई थी। इससे न्याय में देरी, जांच में त्रुटियाँ, और मानसिक थकावट जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।न्याय प्रणाली के लिए बजटीय आवंटन बहुत कम है। सत्र 2024–25 में औसतन केवल 4.3% राज्य बजट ही न्यायिक प्रणाली को मिला। इसका परिणाम यह है कि अदालतों में मूलभूत सुविधाओं की भी कमी है।दलित, आदिवासी, महिलाएँ और अन्य पिछड़ा वर्ग न्यायिक सहायता तक पहुँचने में कठिनाई महसूस करते हैं। विचाराधीन कैदियों में 76% ऐसे लोग हैं जो दोषसिद्ध नहीं हुए हैं, और उनके पास त्वरित सुनवाई या जमानत का साधन नहीं होता। वर्ष 2019 में भारत में 1723 लोगों की हिरासत में मौत हुई, जो हर दिन औसतन 5 मौतों के बराबर है। हिरासत में यातना, सी सी टी वी का अभाव और गिरफ्तारी के प्रोटोकॉल की अवहेलना दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा देती है।भारत प्रति व्यक्ति केवल 0.78 रुपये कानूनी सहायता पर खर्च करता है। अधिकांश कारागारों में कानूनी सहायता क्लीनिक नहीं हैं और डी एल एस ए व एस एल एस ए जैसी संस्थाओं की सेवाएँ भी शहरी क्षेत्रों तक सीमित हैं। 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 100% से अधिक कारागार अधिभोग दर दर्ज की गई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जेल व्यवस्था विचाराधीन कैदियों से बोझिल हो गई है, जो अक्सर वर्षों से बिना किसी सुनवाई के बंद हैं। महिलाओं का न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व मात्र 37.4% है, जिसमें उच्च न्यायालयों में केवल 14% महिलाएँ हैं। साथ ही अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व भी न्यूनतम है, जो न्याय में पक्षपात की आशंका बढ़ाता है।उक्त समस्याओं का निबटारा संभव है बशर्ते हम निम्न उपायों पर गौर करें। सरकार को न्याय व्यवस्था में पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता देनी चाहिए। अदालत परिसरों की डिजिटल अपग्रेडेशन, वर्चुअल सुनवाई की सुविधा और ई-कोर्ट्स परियोजना को विस्तार देने की आवश्यकता है। तेजी से न्यायाधीशों और स्टाफ की नियुक्ति की जाए, विशेषकर अधीनस्थ अदालतों में। न्यायिक सेवा परीक्षा में पारदर्शिता और विविधता लाकर प्रतिनिधित्व को सशक्त किया जा सकता है।पुलिस सुधारों को शीघ्र लागू किया जाए, जैसे कि पुलिस की स्वतंत्रता, जवाबदेही आयोग और आधुनिक प्रशिक्षण। अभियोजकों की स्वायत्तता बढ़ाना न्यायिक निष्पक्षता के लिये आवश्यक है।त्वरित सुनवाई, जमानत प्रक्रिया का सरलीकरण और पैरोल नीति का व्यापक विस्तार किया जाना चाहिए। लीगल एड वक़ीलों की संख्या और गुणवत्ता में सुधार करना भी ज़रूरी है। एन ए एल एस ए, एस एल एस ए और डी एल एस ए जैसी संस्थाओं की पहुँच गाँव-गाँव तक होनी चाहिए। ग्राम न्यायालयों को पुनर्जीवित कर उनके माध्यम से मामूली विवादों को सुलझाया जा सकता है। पोक्सो, एन डी पी एस जैसे मामलों के लिए विशेष अदालतों को और प्रभावी बनाया जाए। मध्यस्थता, सुलह और लोक अदालतों जैसे उपायों को अधिक औपचारिक मान्यता दी जाए।डिजिटल तकनीक का उपयोग कर न्याय तक पहुँच को सरल बनाया जा सकता है। मोबाइल ऐप्स और ऑनलाइन पोर्टल्स के माध्यम से मुकदमों की जानकारी और कानूनी सलाह को सुलभ बनाया जाए। न्यायपालिका और पुलिस में महिलाओं व वंचित वर्गों की भागीदारी बढ़ाई जाए। इससे निर्णयों में संवेदनशीलता और नागरिकों का विश्वास दोनों बढ़ेंगे।अंत में कह सकते हैं कि भारत की न्याय प्रणाली को पुनर्जीवित करना एक बहुस्तरीय चुनौती है, लेकिन यह असंभव नहीं। संसाधन वृद्धि, संस्थागत सुधार, तकनीकी नवाचार और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को साथ लेकर चलने वाली नीति ही इस प्रणाली को नई ऊर्जा दे सकती है। लोकतंत्र की आधारशिला तभी मजबूत होगी जब प्रत्येक नागरिक को शीघ्र, सुलभ और निष्पक्ष न्याय मिलेगा।