भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां भारत जैसे जनसंख्या-प्रधान देश में, बड़े आयोजनों—धार्मिक मेलों, स्टेडियम, रेलवे प्लेटफार्मों— भीड़ भगदड़ मचना एक आम सी बात हो चली है। यह इतिहास ही नहीं बल्कि समय समय पर घटित होने वाली घटनाएं गवाह हैं कि अक्सर उत्साह और उमंग के साथ भरपूर उक्त स्थलों पर भीड़-भाड़ के बीच, एक छोटी चूक सैंकड़ो, हजारों लोगों की जिंदगीयां लील जाती हैं और कईयों को जख्मी कर जीवन भर का दर्द दे जाती हैं। यह सच है कि “भीड़ भगदड़” यानी स्टैंपीड को सिर्फ आकस्मिक हादसा नहीं कहा जा सकता—यह प्रशासन, संरचना और मानवीय व्यवहार के समन्वित टूटने का खतरनाक नतीजा होता है। जिससे हम कभी नहीं सीख पाते और ये क्रमानुसार आज भी जारी है। गर हम बात करें हाल ही में ओडिशा के पुरी जिले में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के दौरान श्री गुंडिचा मंदिर के पास रविवार तड़के हुई एक भगदड़ की जिसमें कम से कम तीन श्रद्धालुओं की मौत हो गई है और लगभग 50 अन्य घायल हो गए। जब वहां धक्का-मुक्की हो गई और भगदड़ जैसी स्थिति बन गई। सरकार ने वहां मौजूद प्रशासनिक अधिकारियों के या तो तबादले कर दिये या फिर उन्हें सस्पेंड कर दिया है क्या इस खतरनाक मंजर की यह सजा काफी है। यह अलग सवाल है। आगे बढ़ने से पहला आइये समझते हैं भारत में भीड़ भगदड़ की प्रमुख घटनाओं के संक्षिप्त इतिहास को। गर देखा जाये तो भारत में पिछले कुछ दशक में कई भीषण भगदड़ की घटनाएं घटित हुई हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं जैसे वर्ष 1995 में बछेड़ी, मध्य प्रदेश: धार्मिक मेले में भगदड़ में करीब 300 लोग मारे गए।, 2008 – नर्मदा नदी पर नर्मदा दर्शन मेले के दौरान करीब 130 लोगों की जान गई, 2013 मामा के टिब्बा, हरिद्वार में केदारनाथ मेले के समय भगदड़ हुई, जिसमें कई लोग घायल हुए, 2021 इंदौर, आरती वापसी के दौरान रेल्वे स्टेशन पर भगदड़, दर्जनभर लोग घायल हुए। इन घटनाओं को बारीकी से आंकें तो पायेंगे कि इन सब में कई बातें एक समान थीं यानी प्रबंधन की कमी, एक्सेस रूट बंद, रियल-टाइम कंट्रोल की व्यवस्था का अभाव, और अनियोजित भीड़ का संचार। अब बात करते हैं भगदड़ के उन अहम कारणों की जिनसे ये पैदा होती है। यह सच है कि आयोजन स्थल पर लोग पर्याप्त जानकार नहीं होते—एग्जिट रास्तों, आपातकालीन संकेतों व निरंतर सूचना फ्लो की अनुपस्थिति में मृत्यु एवं चोट की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। इसके अलावा आयोजक सुरक्षा व भीड़ नियंत्रण की नीतियाँ निर्धारित नहीं रखते या उनका सतत अमल नहीं करते। पुलिस, एजेंसियों व वालंटियर का समन्वय बाधित हो सकता है। द्वार, गेट, खाद्य व पेय के ठेले, रुकावटें, रेलिंग आदि भी भगदड़ को और उग्र बना देते हैं। यह भी देखा गया है कि अगर किसी को धक्का लगने, गिरने या बीमार पड़ने की स्थिति आती है, तो समय पर बचाव, चिकित्सा या ट्रॉमा केंद्र वहां होता ही नहीं है। आयोजक अक्सर मीडिया, प्रशासन, ट्रेनों, बसों आदि से जुटे आंकड़ों की आधारहीन कयास पर निर्भर रहते हैं, जिससे कई गुना भीड़ स्थल पर पहुंच जाती है। अब बात करते हैं कि सरकारों को अपने स्तर पर इन भगदड़ों को रोकने के लिए कारगर योजना बनानी चाहिएं। भीड़ भगदड़ से जान बचाने के लिए केवल चेतावनी काफी नहीं है—इसके पीछे संगठित, योजनाबद्ध नीति एवं कार्यान्वयन की प्रतिबद्धता जरूरी है। आयोजन स्थल के आधार पर भीड़ की गतिशीलता का अनुमान लगाने मॉडल तैयार किया जाना चाहिए। किसी मेला, पूजा स्थल या स्टेडियम में संभावित टर्नओवर, प्रमुख एंट्री/एग्जिट प्वाइंट और भीड़ बहाव का आकलन करना चाहिए। सी सी टी वी कैमरे, ड्रोन, भीड़ की आवाजाही मॉनीटरिंग सेंसर लगाए जाने चाहिए। इन्हें कंट्रोल रूम से जोड़ा जाना चाहिए ताकि भीड़ में असामान्यता लगते ही व्यवस्थापक तुरंत कार्रवाई करें। हर स्थल पर आगमन व निकास की स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए। इससे रास्ता अवरुद्ध नहीं होगा। संकेत (पेंट, साइनबोर्ड, डिजिटल बोर्ड) एवं ज़मीन रंग कोड सहायक हो सकते हैं। प्रशिक्षित वालंटियरों को भगदड़ रोकने, प्राथमिक चिकित्सा, भीड़ समायोजन, सूचना प्रसार, और आपातकालीन स्थिति में मार्गदर्शन की भूमिका सिखाई जानी चाहिए। टीवी, रेडियो, सोशल मीडिया और स्थानीय भाषाओं में प्रचार होना चाहिए—“जहां दो गेट, वहाँ प्राथमिकता”, “भीड़ को पीछे धककना जानलेवा” जैसे संदेश प्रभावी होते हैं। अनुमति लेने से पहले स्थल की संरचना, मार्ग, क्षमता, वन-वे सिस्टम, आपातकालीन निकासी गेट, और प्रथम उपचार कक्षों का ऑडिट आवश्यक है। आयोजन में नियमों का पालन सुनिश्चित करें। आयोजन से दिन पहले विभागीय दल के साथ ड्रिल, वॉकथ्रू करिए ताकि इमरजेंसी में दोषों का पता चलते संभलने का अभ्यास मिल जाए। उपलब्ध इलाके में आईसीयू, एम्ब्युलेंस, दमकल, पर्सनल ट्रैकिंग सिस्टम जैसी सुविधाएँ होनी चाहिए। गेट व मार्ग व्यवस्था में बैरिकेड, मांगलिक कुशनिंग टेप, झुंड नियंत्रका का उपयोग करके प्रवाह को रेगुलेट करना चाहिए। ट्रेन, बस, मेट्रो, निजी वाहन स्थल पर आने-जाने वाले यातायात को समन्वित करें। भीड़ कम होने पर स्टेशनों पर विशेष व्यवस्था रखें। कई एसे सफल अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण हैं जो इन हालात में खासे कारगर साबित होते रहे हैं। एविएशन में एग्जिट रिसर्च अनुसंधान में प्रकाशित तथ्य बताते हैं कि जितने ज्यादा लोग एक दरवाजे से निकास करते हैं, उतनी धीमी गति से सब बाहर निकलते हैं। इसलिए कई द्वारों की रणनीति अपनाई जाती है। फुटबॉल स्टेडियम (ब्राजील, यूरोप)-डेल्टा संरचना (एक भीड़ नाभिक से कई इमरजेंसी निकास मार्ग) महिलाओं, बच्चों व बुजुर्गों के लिए अलग व्यवस्था। जापान—टोक्यो ओलंपिक्स- भीड़ को समूहों में बांटकर निरंतर मार्गदर्शन, साइनसेटिंग, हवाई मार्गदर्शन का इस्तेमाल किया गया। इन मॉडलों को स्थानीय संदर्भ में ढालना महत्त्वपूर्ण है। देसी मेलों व मेलों की प्रकृति चीज़ों में तकनीकी मानकों के साथ सांस्कृतिक संवेदनशीलता का संतुलन चाहिए। अब समझते हैं हमारी राज्य व केंद्र सरकार की योजनाओं के बारे में। एन डी एम ए एवं राज्य एजेंसियों कई भीड़ नियंत्रण नियमावली2017 जारी कर चुकी हैं। रेलवे बोर्ड, आर पी एफ, प्रशासन, स्थानिक पुलिस क्लाउड कंट्रोल प्रोटोकॉल बनाते रहे हैं। मंदिरों, मथाओं व धामों में क्राउड मैनेजमेंट सिस्टम लागू हो रहे हैं। बावजूद इनके अभी बहुत कुछ करना बाकी है। जैसे वास्तविक स्थल पर तुरंत उपयोग में लाने वाले कंट्रोल रूम व इमरजेंसी सेंटर सरकारों द्वारा पूरी तरह स्थापित नहीं हुए। सांसद/विधायक हर आयोजन स्थल की निर्माण समीक्षा कराने में सक्रिय नहीं होते।सूचना तंत्र (एस एम एस, रेडियो, लोक-गीत) स्थानीय भाषाओं में भेदभाव करता है। कॉरपोरेट—भीड़ नियंत्रण उपकरण, कंट्रोल सेंसर, मॉडरेशन सिस्टम उपलब्ध कराएं। नगर निगम/स्थानीय प्रशासन—नगरिकों को विशेष जागरूकता देने वाले संदेश, स्कूल-स्काउटों को ट्रेनिंग देना आदि। अंत में कह सकते हैं कि भारत में भीड़ भगदड़ की घटनाएं महज रैंडम दुर्घटनाओं जैसा नहीं हैं—यह संरचनात्मक, संगठनात्मक, जागरूकता-तंत्र व तकनीकी महारत की कमी का नतीजा है। समन्वित पायलट प्रोजेक्ट—जैसे धार्मिक मेले, रेलवे स्टेशनों, स्टेडियम आदि में—एक्शन प्लान, मॉनिटरिंग, अभ्यास, सिस्टम ऑडिट देकर व्यापक स्तर पर जीरो स्टैम्पिड नीति अपनाई जानी चाहिए।