Tuesday, July 01, 2025
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संपादकीय

Until the cultural shackles are broken, true equality will not be achieved!: भारत में जेंडर इक्वैलिटी की राह: जब तक नहीं टूटेंगी सांस्कृतिक बेड़ियां, नहीं मिलेगी सच्ची बराबरी!

June 30, 2025 07:23 PM

 भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़     

इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत में लैंगिक समानता की दिशा में भले ही कुछ प्रगति हुई हो, लेकिन मंज़िल अभी दूर है। महिलाओं की शिक्षा में सुधार के बावजूद संसद में उनका प्रतिनिधित्व अब भी केवल 14% पर अटका हुआ है। आर्थिक मोर्चे पर स्थिति और चिंताजनक है—महिलाएं जी डी पी में 20% से भी कम योगदान देती हैं और पुरुषों की तुलना में काफी कम कमाती हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट 2025 के मुताबिक भारत 148 देशों में 131वें स्थान पर है, जो ब्रिक्स और दक्षिण एशिया के कई देशों से पीछे है। ऐसे में जरूरी है कि भारत हर क्षेत्र में ठोस और समावेशी बदलाव को प्राथमिकता दे ताकि सच्ची लैंगिक समानता हासिल की जा सके। आइये समझते हैं लैंगिक समानता प्राप्त करने में भारत की प्रमुख प्रगति के बारे में। भारत ने शिक्षा में लैंगिक समानता प्राप्त करने में उल्लेखनीय प्रगति की है। प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का सकल नामांकन अनुपात 94.32% है, जो लड़कों के 89.28% से थोड़ा अधिक है। इसी तरह, माध्यमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन अनुपात 81.32% है, जबकि लड़कों का 78% है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर में 68% की वृद्धि हुई है, जो स्वतंत्रता के समय 9% से बढ़कर वर्तमान में 77% हो गई है तथा यह लैंगिक शिक्षा के अंतर को कम करने की दृढ़ प्रतिबद्धता का संकेत है। प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसी पहल महिलाओं के वित्तीय समावेशन को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण रही है। जनवरी 2025 तक, 56% प्रधानमंत्री जन धन योजना खाते महिलाओं के पास होंगे, जिससे उन्हें बैंकिंग, बचत और ऋण तक बेहतर पहुँच प्राप्त होगी। डी बी टी प्रणाली ने भी महिलाओं को सशक्त बनाया है, क्योंकि इससे यह सुनिश्चित हुआ है कि सरकारी सब्सिडी (जैसे: मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना) और कल्याण निधि सीधे उन तक पहुँचे तथा बिचौलियों की जरूरत नहीं पड़े। भारत ने महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तीकरण को बढ़ाने के उद्देश्य से कई महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधार पेश किये हैं। आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 ने यौन उत्पीड़न और उत्पीड़न के लिये दंड को कड़ा कर दिया है, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा के प्रति शून्य-सहिष्णुता के दृष्टिकोण को दर्शाता है। भारत में महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व की बाधाओं को तोड़ रही हैं, जिनमें सी आर पी एफ के चार सेक्टरों का नेतृत्व करने वाली पहली महिला— चारु सिन्हा तथा भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने वाली— न्यायमूर्ति नागरत्ना जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। कर्नल सोफिया कुरैशी ने विंग कमांडर व्योमिका सिंह के साथ मिलकर ऑपरेशन सिंदूर पर ब्रीफिंग का नेतृत्व किया, जो सेना में महिलाओं के लिये एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि साबित हुआ। भारत में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, विशेष रूप से ज़मीनी स्तर पर।  73 वें और 74वें संविधान संशोधनों ने पंचायतों और स्थानीय शासन निकायों में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दीं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय शासन के 40% से अधिक पद महिलाओं के पास हैं। महिला आरक्षण अधिनियम 2023, जो संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित करता है, राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।  राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम जैसे कार्यक्रमों ने पिछले दशक में मातृ मृत्यु दर को 50% से अधिक कम करने में मदद की है। आयुष्मान भारत योजना ने स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच का विस्तार किया है, जिससे लाखों महिलाएँ मुफ्त स्वास्थ्य जाँच और उपचार से लाभान्वित हो रही हैं। भारत के प्रमुख रोज़गार कार्यक्रम, मनरेगा ने श्रम बल में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिला भागीदारी को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मनरेगा श्रमिकों में 57.47% से अधिक महिलाएँ हैं (सत्र 2022-23 तक) जो कार्यक्रम के समान वेतन प्रावधानों से लाभान्वित हो रही हैं। ये वेतन महिलाओं को स्वतंत्र आय प्रदान करते हैं, जिससे उनकी स्वायत्तता बढ़ती है। स्टैंड अप इंडिया और मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी) जैसी सरकार समर्थित योजनाएँ महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने में सहायक रही हैं।  इसके अलावा, स्वयं सहायता समूह ग्रामीण महिलाओं को बचत, ऋण और वित्तीय साक्षरता तक पहुँच प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। एसा नहीं है कि इस मामले में सब कुछ ठीक है। लैंगिक समानता में बाधा डालने वाले भी कई मुद्दे हैं। राजनीतिक अल्प प्रतिनिधित्व, श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी, सांस्कृतिक बाधाएँ और पितृसत्तात्मक मानदंड, लैंगिक वेतन अंतर, शैक्षिक उपलब्धि बनाम रोज़गार के अवसर, अपर्याप्त मातृत्व लाभ और शिशु देखभाल सहायता, वित्तीय सेवाओं में सीमित उपयोग आदि हैं। बावजूद इनके लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति को गति देने के लिये भारत कई उपाय अपना सकता है। इनमें महिलाओं के लिये व्यापक कौशल विकास कार्यक्रम लागू करना, लिंग-संवेदनशील श्रम कानूनों को बढ़ाव देना और लागू करना, स्थानीय नेतृत्व पहल के माध्यम से राजनीतिक सशक्तीकरण को मज़बूत करना, लिंग-संवेदनशील बजट और नीति निर्माण को बढ़ावा देना, अनुकूलित वित्तीय सेवाओं के माध्यम से महिला उद्यमियों के लिये समर्थन बढ़ाना, लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम में सुधार, सुदृढ़ डेटा संग्रहण और लैंगिक-विभाजन को लागू करना, घरेलू कामगारों और अनौपचारिक मजदूरों के लिये सहायता प्रणालियों को मज़बूत बनाना, महिला-केंद्रित पहलों के लिये जेंडर इम्पैक्ट बॉण्ड की शुरुआत आदि शामिल हैं। अंत में कह सकते हैं भारत ने लैंगिक समता की दिशा में सराहनीय प्रगति की है, परंतु यह यात्रा अब भी अधूरी है। शिक्षा, आर्थिक भागीदारी तथा नेतृत्व में व्याप्त अंतरालों को पाटने की दिशा में देश निरंतर आगे बढ़ रहा है, लेकिन इसके साथ-साथ सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ने, समान अवसर सुनिश्चित करने तथा समावेशी नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने पर भी संगठित ध्यान देना आवश्यक है।

 

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