भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत की प्रगति की कहानी तब तक अधूरी है जब तक उसमें महिलाओं की पूर्ण और समान भागीदारी सुनिश्चित न हो। लैंगिक समानता केवल महिला सशक्तीकरण का मुद्दा नहीं, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समावेशन और मानवीय गरिमा की एक व्यापक अवधारणा है। यद्यपि भारत ने शिक्षा, कानून, स्वास्थ्य और राजनीति जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार किए हैं, लेकिन अभी भी संरचनात्मक असमानताएँ, सांस्कृतिक पूर्वाग्रह और आर्थिक असंतुलन महिलाओं की राह में बाधा बने हुए हैं। आइये बात करते हैं इस क्षेत्र में खास प्रगति के बारे में। प्राथमिक से माध्यमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन लड़कों से अधिक हो गया है—प्राथमिक स्तर पर 94.32% और माध्यमिक में 81.32%। साक्षरता दर में भी उल्लेखनीय उछाल आया है। 1947 में मात्र 9% से बढ़कर अब यह 77% हो गई है, जो महिलाओं की सशक्त भागीदारी का संकेत है। पी एम जे डी वाई के तहत महिलाओं के नाम पर खुले खातों की संख्या 56% तक पहुँची है। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण जैसे कार्यक्रमों ने महिलाओं को सब्सिडी और कल्याण योजनाओं का सीधा लाभ पहुंचाया है। आपराधिक कानून (संशोधन), 2013 से यौन अपराधों पर कठोर दंड लागू हुआ। 2017 में 26 सप्ताह का मातृत्व अवकाश देकर कार्यस्थलों को महिला-मैत्री बनाया गया। नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ रही है।न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना भारत की पहली महिला सी जे आई बनने की ओर अग्रसर हैं। एन एस ई की 97% कंपनियों में कम से कम एक महिला निदेशक की नियुक्ति हो चुकी है। महिलाओं का . राजनीतिक सशक्तीकरण भी बढ़ा है। पंचायती राज में 40% से अधिक पद अब महिलाओं के पास हैं। महिला आरक्षण अधिनियम 2023 संसद और विधानसभाओं में 33% आरक्षण सुनिश्चित करता है। स्वास्थ्य और पोषण की बात करें तो जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम और आयुष्मान भारत योजना से महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ी। ए बी-पी एम जे ए वाई के तहत 49% लाभार्थी महिलाएँ हैं। महिलाओं की ग्रामीण कार्यबल में भी भागीदारी बढ़ी है।मनरेगा में 57.47% महिलाएँ सक्रिय हैं—यह उनके आर्थिक स्वावलंबन का प्रमाण है। स्टैंड अप इंडिया और मुद्रा जैसी योजनाओं के तहत 68% ऋण महिलाओं को दिए गए। एस एच जी और लखपति दीदी योजना ने महिला उद्यमियों को वित्तीय और सामाजिक पूँजी दी। इस मामले में कई प्रमुख चुनौतियाँ भी हैं। जैसे राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमीः संसद में महिलाओं की भागीदारी मात्र 13.8% है।मंत्री पदों पर सिर्फ 5.6% महिलाएँ, जिससे निर्णय प्रक्रिया में उनकी सीमित भागीदारी सामने आती है। श्रमबल में न्यून भागीदारी और वेतन असमानताः 41.7% महिला भागीदारी अभी भी अपेक्षा से कम है। शहरी क्षेत्रों में महिलाएँ 30-40% कम वेतन पाती हैं। अवैतनिक कार्यों का मूल्य 19 लाख करोड़ रुपये आँका गया।. पितृसत्तात्मक सोच और सांस्कृतिक बंधनः निर्णय क्षमता में कमी: 59% महिलाएँ वित्तीय निर्णय स्वतंत्र रूप से नहीं लेतीं। ग्लास सीलिंग और ग्लास क्लिफ जैसी अवधारणाएँ अभी भी प्रचलित हैं।अपर्याप्त शिशु देखभाल और मातृत्व सहायताः 73% महिलाएँ मातृत्व के बाद नौकरियाँ छोड़ देती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बाल देखभाल केंद्रों का अभाव एक बड़ी चुनौती है।वित्तीय सेवाओं का सीमित उपयोगः सर्वे 2021 के अनुसार, 32% महिला बैंक खाते निष्क्रिय हैं। शैक्षिक उपलब्धि बनाम रोज़गार अवसरः स्टैम स्नातकों में महिलाओं की संख्या अधिक है, फिर भी केवल 27% कार्यबल में महिलाएँ हैं। अब यहां नीतिगत सुधार और सामाजिक बदलाव अपेक्षित हैं जिसमें कौशल विकास और डिजिटल साक्षरताः ग्रामीण महिलाओं के लिये डिजिटल, टेक्नोलॉजी और ग्रीन जॉब्स आधारित ट्रेनिंग। गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में सहभागिता को प्रोत्साहन (जैसे स्टैम, फिनटेक)। लिंग-संवेदनशील श्रम कानूनों का सशक्त प्रवर्तनः समान वेतन, पारिवारिक अवकाश, और कार्यस्थल सुरक्षा को कानूनी रूप से मजबूती देना। कंपनियों का लैंगिक ऑडिट और अनुपालन सुनिश्चित करना। स्थानीय से राष्ट्रीय राजनीति तक नेतृत्व विस्तारः महिला प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों से लैस करना। पंचायत से लेकर संसद तक महिलाओं की राजनीतिक समझ और भागीदारी बढ़ाना।लैंगिक बजट और नीतियों का संस्थानीकरणः हर सरकारी नीति में जेंडर इम्पैक्ट मूल्यांकन।स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार में महिला-केंद्रित बजटीय आवंटन। महिला उद्यमिता के लिये वित्तीय इकोसिस्टम का निर्माणः कम ब्याज दरों पर ऋण, संपार्श्विक रहित ऋण की सुविधा। महिला स्टार्टअप नेटवर्क, मार्गदर्शन और निवेश सहायता।शैक्षिक पाठ्यक्रम में लैंगिक समावेशनः स्कूलों में जेंडर सेंसिटाइजेशन मॉड्यूल की शुरुआत। लड़कियों को स्टैम और लड़कों को केयरिंग प्रोफेशन के प्रति प्रेरित करना। डेटा-संचालित नीति निर्माणः लैंगिक-विभाजन डेटा के आधार पर योजनाओं का निर्माण और निगरानी। राष्ट्रीय महिला कार्यबल रजिस्ट्री का निर्माण। घरेलू कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षाः न्यूनतम वेतन, बाल देखभाल, और स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं का विस्तार। घरेलू कामगारों के लिए औपचारिक संगठन और सशक्तिकरण।जेंडर इम्पैक्ट बॉन्ड का निर्माणः निजी निवेश को महिला-केंद्रित योजनाओं में जोड़ना। निवेशकों को आउटकम आधारित रिटर्न मिलना—जैसे महिला साक्षरता, स्वास्थ्य, उद्यमिता। अंत में कह सकते हैं कि लैंगिक समानता कोई एकल लक्ष्य नहीं, बल्कि निरंतर संघर्ष और सुधार की प्रक्रिया है। भारत ने एक लंबी दूरी तय की है, परंतु यात्रा अभी बाकी है। न्यायपूर्ण, समावेशी और सतत विकास के लिये यह आवश्यक है कि पुरुषों और महिलाओं को समान मंच, संसाधन और अवसर मिलें। "लैंगिक समानता केवल एक महिला मुद्दा नहीं, यह एक राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी है।"