भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह सच है कि जनजातीय कार्य मंत्रालय ने हाल ही में एक व्यापक और महत्त्वाकांक्षी आउटरीच अभियान की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य देश के एक लाख से अधिक जनजातीय गांवों तक कल्याणकारी योजनाओं की प्रभावी पहुँच सुनिश्चित करना है। इस पहल में ‘धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान’ जैसे कार्यक्रम भी शामिल हैं, जिनका मकसद जनजातीय समुदायों को बुनियादी सुविधाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका से जोड़ना है। सरकार ने विशेष रूप से 75 अत्यंत कमज़ोर जनजातीय समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिये समय-समय पर कई योजनाएं और पहलकदमियां शुरू की हैं। हालांकि, ज़मीनी स्तर पर इन पहलों के क्रियान्वयन में अनेक चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं, जिनमें प्रशासनिक समन्वय की कमी, संसाधनों का अभाव, और जनजातीय क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे की सीमाएं प्रमुख हैं। यह नया अभियान एक ओर जहां दशकों से उपेक्षित जनजातीय समुदायों की समस्याओं को समाधान की दिशा में एक सार्थक प्रयास प्रतीत होता है, वहीं यह सरकार की नीतियों की वास्तविक प्रभावशीलता की कसौटी भी बनेगा। यदि यह अभियान अपने लक्ष्यों को पूरा करने में सफल होता है, तो यह न केवल विकासात्मक अंतर को पाटने की दिशा में निर्णायक कदम होगा, बल्कि भारत के समावेशी विकास मॉडल को भी मजबूत करेगा। आइये बात करते हैं भारत की सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक-आर्थिक प्रगति में जनजातियों के योगदान की। जनजातियाँ अपनी मौखिक परंपराओं, लोक कला, आध्यात्मिक प्रथाओं और पारिस्थितिक विश्वदृष्टिकोण के माध्यम से भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करती हैं। ये भारत के प्रागैतिहासिक अतीत तथा उसकी बहुलतावादी चेतना से जीवंत रूप में जुड़ी हुई हैं। इनकी विशिष्ट जीवनशैली भारत में परिवर्तन के बीच सांस्कृतिक निरंतरता को दर्शाती है। भारत सरकार ने जनगणना- 2011 के अनुसार 705 जनजातियों को आधिकारिक रूप से मान्यता दी है, जिनमें प्रत्येक की अपनी अनूठी भाषायी और कलात्मक परंपराएँ हैं। जनजातीय समुदाय भारत की भौगोलिक संरचना में निहित हैं, जो प्रायः वनों और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते हैं तथा भूमि एवं जन के बीच एक सांस्कृतिक-सभ्यतागत संबंध स्थापित करते हैं।इनकी क्षेत्रीय आत्मीयता स्वदेशी संप्रभुता और प्राकृतिक संरक्षण का बोध कराती है। जनजातीय समुदायों ने बाह्य शासन के विरुद्ध (चाहे वह औपनिवेशिक सत्ता हो या संसाधनों के शोषण की नीतियाँ) निरंतर प्रतिरोध किया है तथा स्वदेशी स्वशासन के मॉडल को सुदृढ़ रूप में प्रस्तुत किया है। उनका यह संघर्ष भारत की औपनिवेशिक-विरोधी चेतना तथा विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का केंद्रीय आधार रहा है। जनजातीय समाज सामूहिकता, अल्प-स्वामित्व और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व जैसे मूल्यों पर आधारित हैं, जो दोहन-आधारित विकास के प्रतिमानों के विरुद्ध एक मज़बूत नैतिक विकल्प प्रस्तुत करते हैं। इनकी जीवनदृष्टि भारत के लिये वैकल्पिक आधुनिकताओं का पथ प्रशस्त करती है।सुदूर और सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियाँ भारत की क्षेत्रीय अखंडता व सांस्कृतिक एकता को मज़बूत करती हैं। संवेदनशील क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति राष्ट्रीय संप्रभुता की पुष्टि करती है और स्थानीय स्तर पर राष्ट्र के साथ आत्मिक जुड़ाव को बढ़ावा देती है। भारत की पारंपरिक औषधीय पद्धतियाँ, कृषि-तकनीकें, पारिस्थितिकीय समझ और लोककथाएँ जनजातीय ज्ञान से पोषित हुई हैं। ये परंपराएँ भारत की बौद्धिक विविधता को समृद्ध करती हैं तथा स्थानीय ज्ञान परंपराओं को आधार प्रदान करती हैं। सामुदायिक सामाजिक मॉडल के निर्माता: जनजातियाँ सामूहिक भूमि स्वामित्व, जन परिषदों द्वारा निर्णय तथा विकेंद्रित नेतृत्व जैसे गुणों के कारण समतामूलक सामाजिक संरचनाओं की प्रतिनिधि हैं। ये भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के स्वदेशी रूप का प्रतिबिंब हैं।जनजातीय विश्वदृष्टिकोण में आत्मवाद, प्रकृति-पूजा और बहुदेववाद सह-अस्तित्व में रहते हैं, जिससे भारत की सांस्कृतिक समन्वयशीलता को मज़बूती मिलती है। उनका समावेशी धार्मिक दृष्टिकोण भारत की धर्मनिरपेक्षता को आधार देता है। गर हम जनजातियों से जुड़े प्रमुख मुद्दों की बात करें तो इनमें भूमि वंचना और संसाधन विस्थापन, पीसा अधिनियम का अल्प क्रियान्वयन और कमज़ोर स्थानीय शासन, शैक्षिक पिछड़ापन और सांस्कृतिक विछिन्नता, स्वास्थ्य अभाव और प्रणालीगत अंतराल, आर्थिक हाशियाकरण और अनौपचारिक निर्भरता, पहचान का क्षरण और सांस्कृतिक विखंडन, संघर्ष-क्षेत्र में उत्पीड़न और कानूनी अन्याय, जनजातीय उत्पादों का बाज़ार से अलगाव शामिल हैं। भारत में जनजातीय सशक्तीकरण को बढ़ाने के लिये भारत कई उपाय कर सकता है जैसे जनजातीय-केंद्रित शासन को क्रियान्वित करना, शिक्षा और प्रशासन में जनजातीय भाषाओं को संस्थागत बनाना, जनजातीय सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदा अधिकार कार्यढाँचा स्थापित करना, जनजातीय-विशिष्ट उद्यमिता और मूल्य शृंखला मॉडल तैयार करना, स्वदेशी और समुदाय-नेतृत्व वाले दृष्टिकोणों के साथ स्वास्थ्य प्रणालियों को पुनः दिशा प्रदान करना, विउपनिवेशित पाठ्यक्रम के साथ एक स्वदेशी शिक्षा नीति तैयार करना, जलवायु-अनुकूल जनजातीय आजीविका मॉडल को संस्थागत बनाना, जनजातीय क्षेत्रों में सहभागी डिजिटल समावेशन सुनिश्चित करना, जनजातीय सामाजिक उत्तरदायित्व तंत्र के माध्यम से निगरानी का विकेंद्रीकरण, जनजातीय विश्वदृष्टि के साथ विकास संकेतकों को पुनः परिभाषित करना आदि हैं। भारत में जनजातीय कल्याण के लिये ज़ाक्सा समिति की सिफारिशें भी हैं ये हैं वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन को सुदृढ़ किया जाना चाहिये और विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले विस्थापन से सुरक्षा की जानी चाहिये। भूमि अधिग्रहण के लिये आदिवासी समुदायों की पूर्व सूचित सहमति सुनिश्चित की जानी चाहिये। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, अधिक संख्या में जनजातीय शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिये तथा बेहतर बुनियादी अवसंरचना और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील विषय-वस्तु के साथ बस्तियों के निकट आवासीय विद्यालय स्थापित किये जाने चाहिये।मोबाइल क्लीनिकों, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं और पारंपरिक जनजातीय चिकित्सा पद्धतियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ एकीकृत करके जनजातीय क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। वन उपज बाज़ारों तक पहुँच में सुधार, कृषि वानिकी को बढ़ावा देने तथा जनजातीय आवश्यकताओं के अनुरूप ऋण और कौशल विकास योजनाओं का विस्तार करके जनजातीय आजीविका का समर्थन किया जाना चाहिये।योजनाओं की निगरानी करने, पृथक् आँकड़े एकत्र करने तथा सुधार की सिफारिश करने के लिये जनजातीय विकास पर एक समर्पित राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की जानी चाहिये। जनजातीय कल्याण पर अन्य प्रमुख समितियाँ भी हैं। जैसे एल्विन समिति (वर्ष 1959), ढेबर आयोग (वर्ष 1960), लोकुर समिति (वर्ष 1965), भूरिया समिति (वर्ष 1991) आदि। अंत में कह सकते हैं कि भारत की जनजातीय समुदाय कोई हाशिये पर खड़े समूह नहीं हैं जिन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये केवल आत्मसात करने की नीति अपनायी जाये, बल्कि ये तो राष्ट्र की सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और नैतिक आधारशिला के मुख्य वास्तुकार हैं।