भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह शत प्रतिशत सच है कि बिहार की राजनीति में मुसलमानों की उपस्थिति एक मजबूत वोट बैंक के रूप में तो हमेशा बनी रही है, लेकिन जब बात सत्ता के शीर्ष की आती है उनकी भागीदारी सदैव सवालों के घेरे में ही रहती है मजबूरन मुस्लिम वोटरों को गैर मुस्लिम वाली पार्टियों के नेताओं को ही अपना रहनुमा मान कर चुनावों में जिताना पड़ता है।गर हम आंकड़ों की बात करें तो यह सच है कि बिहार की कुल जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 17% है, लेकिन प्रतिनिधित्व के स्तर पर वे कहीं पीछे हैं। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता लगभग 17% रहे। 243 सीटों में से लगभग 50 से अधिक सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में थे। लेकिन इन चुनावों में केवल 19 मुस्लिम विधायक ही जीत सके, यानी महज 7.8%। यह असंतुलन दर्शाता है कि जिस समाज का वोट सत्ता बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है, वह स्वयं निर्णय की कुर्सी से कोसों दूर है। कमोवेश लोकसभा में भी स्थिति कुछ एसी ही है। बिहार से चुने गए सांसदों में मुस्लिम सांसदों की संख्या नाममात्र ही रही है। पिछले चुनावों में एक या दो मुस्लिम सांसद ही संसद में पहुंच सके। आइये समझते हैं इस सारे गणित को कि आखिर क्यों बिहार में मुस्लिम नेता उभर नहीं पाते हैं? राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की रणनीति में मुस्लिमों को “सेफ वोटर” के तौर पर देखा जाता है। अधिकांश दल उन्हें टिकट देने की बजाय केवल उनके वोटों के सहारे अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहते हैं। वे मुस्लिम समाज के धार्मिक नेताओं और प्रभावशाली चेहरों के सहारे वोट तो बटोर लेते हैं, लेकिन उन्हें सत्ता में भागीदारी देने से कतराते हैं। बिहार में एक मजबूत मुस्लिम नेता की कमी हमेशा महसूस की जाती रही है। कभी मोहम्मद यूनुस, अबुल कलाम आज़ाद जैसे चेहरे देश की सियासत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, लेकिन वर्तमान समय में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है जो पूरे मुस्लिम समाज को एकजुट कर सके। पिछले कुछ वर्षों में बिहार की राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ा है। खासतौर पर बीजेपी और उसके सहयोगी दल हिंदुत्व की राजनीति को मजबूत करते रहे हैं, जिससे मुस्लिम नेताओं को टिकट देना राजनीतिक जोखिम माना जाने लगा है। दूसरी ओर, सेक्युलर पार्टियां जैसे राजद और कांग्रेस भी वोट पाने के बावजूद मुस्लिमों को नेतृत्व में पर्याप्त स्थान नहीं देतीं। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) पर मुसलमानों और यादवों का सबसे बड़ा समर्थन आधार है, जिसे “माई समीकरण” कहा जाता है। तेजस्वी यादव की अगुवाई में पार्टी ने मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में बनाए रखा है। 2020 में राजद ने सबसे अधिक मुस्लिम प्रत्याशी उतारे, लेकिन अधिकांश मुस्लिम उम्मीदवार सीमित क्षेत्रों में ही सिमट गए। इसका कारण पार्टी की रणनीति नहीं बल्कि जातीय और स्थानीय समीकरण रहे। कांग्रेस का इतिहास मुस्लिम नेतृत्व से भरा रहा है, लेकिन बिहार में अब वह भी हाशिए पर है। टिकट वितरण में कांग्रेस ने भी मुस्लिम चेहरों को प्राथमिकता दी, लेकिन जीत की संभावना वाले क्षेत्रों में उन्हें मौका नहीं दिया गया। नीतीश कुमार की पार्टी ने विकास के एजेंडे को मुसलमानों तक पहुंचाया और कुछ खास योजनाएं भी लागू कीं, जैसे 'मुख्यमंत्री अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति योजना' और 'हुनर योजना'। फिर भी, मुस्लिम प्रतिनिधित्व के मामले में जेडीयू भी ज्यादा सक्रिय नहीं रही है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ए आई एम आई एम ने सीमांचल क्षेत्र में 5 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। खासकर किशनगंज, अररिया, कटिहार जैसे जिलों में ओवैसी की पार्टी ने मुस्लिम युवाओं को एक नई उम्मीद दी। हालांकि 2024 में पार्टी का प्रभाव सीमित हो गया, लेकिन इसने मुख्यधारा की पार्टियों पर दबाव जरूर बनाया कि अब मुस्लिम वोटों को केवल “मान लिया गया समर्थन” न समझा जाए। राजनीति में मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी लगभग नगण्य है। कुछ गिनी-चुनी महिलाएं पंचायती स्तर पर सक्रिय हैं, लेकिन विधानसभा या लोकसभा में उनकी उपस्थिति नगण्य है। धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों के चलते उन्हें सार्वजनिक जीवन में जगह नहीं मिल पाई है। हालांकि हाल के वर्षों में कई मुस्लिम महिला संगठनों ने शिक्षा और नेतृत्व के मुद्दों पर काम शुरू किया है, जिससे उम्मीद बंधी है कि भविष्य में परिवर्तन संभव है। अगर हम इस जमात से जुड़े विभिन्न मुद्दों की बात करें तो मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी चुनौतियों में शिक्षा और रोजगार की कमी है। बिहार के कई मुस्लिम बहुल जिलों में स्कूल, कॉलेज और तकनीकी संस्थान या तो कम हैं या सुविधाओं से वंचित। उच्च शिक्षा की ओर रुझान भी बहुत कम है। सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार सरकार की नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 5.4% रही, जबकि उनकी जनसंख्या 17% से अधिक है। इन विषमताओं के कारण राजनीतिक नेतृत्व उभर नहीं पाता। जब तक शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण नहीं होगा, नेतृत्व की आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। आइये अब उक्त परेशानियों के समाधान पर तवज्जो दी जाये। सभी दलों को यह स्वीकार करना होगा कि यदि वे मुस्लिम वोट चाहते हैं, तो उन्हें टिकट देने और नेतृत्व में भागीदारी सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी भी निभानी होगी। समाज को केवल भावनात्मक या धार्मिक मुद्दों पर नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार और विकास जैसे ठोस मुद्दों पर एकजुट होना होगा। नेतृत्व के लिए युवाओं को आगे आना होगा। ए आई एम आई एम जैसे दलों की सफलता इस बात का प्रमाण है कि मुस्लिम मतदाता अब वैकल्पिक नेतृत्व को तलाशने को तैयार हैं। यदि बिहार में क्षेत्रीय मुस्लिम नेतृत्व मजबूत होता है, तो वह अन्य दलों पर भी दबाव बना सकता है। राजनीतिक दलों को मुस्लिम महिलाओं को भी टिकट देना होगा। सामाजिक संगठनों को भी मुस्लिम महिलाओं को नेतृत्व के लिए प्रेरित करना होगा। अंत में कह सकते हैं कि बिहार में मुसलमानों की स्थिति आज भी एक सवाल है—“हम वोटर तो हैं, लेकिन लीडर क्यों नहीं?” यह सवाल न केवल राजनीतिक दलों से है, बल्कि स्वयं समाज से भी है। जब तक मुस्लिम समाज खुद अपने नेतृत्व को तैयार नहीं करता, तब तक वह केवल एक वोट बैंक बना रहेगा। समय की मांग है कि मुस्लिम समुदाय केवल सत्ता दिलाने वाला साधन नहीं, बल्कि सत्ता में हिस्सेदार भी बने। इसके लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल जिम्मेदारी दिखाएं, समाज आत्मनिरीक्षण करे और युवा नेतृत्व आगे बढ़े।