फ्रांस इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। राजधानी पेरिस समेत कई बड़े शहरों में हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा सड़कों पर उतर आया है और व्यापक विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि हिंसा और तोड़फोड़ को रोकने के लिए फ्रांस सरकार ने पूरे देश में 80,000 से अधिक पुलिसकर्मी और सुरक्षाबलों की तैनाती कर दी है।
ये प्रदर्शन नेपाल में हाल ही में हुए जनविरोधी आंदोलनों की याद दिला रहे हैं, जहां बड़े पैमाने पर युवा और आम लोग सड़कों पर उतरे थे। फ्रांस में भी असंतोष का केंद्र युवाओं और श्रमिक वर्ग को माना जा रहा है। लोग आर्थिक संकट, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और सरकार की नीतियों से नाराज हैं। खासतौर पर हाल ही में लागू किए गए श्रम सुधार कानून और पेंशन व्यवस्था से जुड़े बदलावों ने इस आंदोलन को और भड़का दिया है।
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार उनकी आवाज नहीं सुन रही और फैसले थोप रही है। नारेबाजी, रैलियां और सड़क अवरोधन की घटनाओं ने शहरों की रफ्तार थाम दी है। कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें भी हुई हैं, जिसमें दर्जनों लोग घायल बताए जा रहे हैं।
स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए पुलिस ने रणनीतिक मोर्चाबंदी की है। पेरिस, लियोन और मार्सिले जैसे शहरों में सुरक्षाबलों को चौक-चौराहों पर तैनात किया गया है। सरकार ने अपील की है कि लोग शांति बनाए रखें और वार्ता का रास्ता अपनाएं। लेकिन प्रदर्शनकारी फिलहाल पीछे हटने के मूड में नहीं दिख रहे।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फ्रांस की मौजूदा स्थिति केवल आंतरिक संकट नहीं है, बल्कि यह यूरोप में भी अस्थिरता का संकेत दे सकती है। यदि आंदोलन लंबे समय तक जारी रहा तो इसका असर अर्थव्यवस्था, निवेश और अंतरराष्ट्रीय छवि पर पड़ सकता है।
कुल मिलाकर, फ्रांस की सड़कों पर फैली यह आग सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। सवाल यह है कि क्या प्रशासन कठोर कदम उठाकर हालात काबू में करेगा या फिर नेपाल की तर्ज पर यहां भी जनदबाव सत्ता की दिशा बदल देगा। आने वाले दिनों में यह आंदोलन फ्रांस की राजनीति और समाज पर गहरा असर डाल सकता है।