भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट और सामाजिक असंतोष का उबाल देखने को मिल रहा है। पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश, उसके बाद नेपाल और अफ्रीका का मैडागास्कर, और अब जॉर्जिया — हर जगह जनता अपनी सरकारों के खिलाफ सड़कों पर उतर रही है। यह घटनाक्रम सिर्फ एक क्षेत्र या महाद्वीप तक सीमित नहीं, बल्कि एक वैश्विक प्रवृत्ति बनता जा रहा है, जो आने वाले समय में लोकतंत्रों के लिए गहरी चिंता का विषय है। हर देश का अपना राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ होता है, लेकिन जन असंतोष की जड़ें लगभग एक जैसी हैं — बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सत्तारूढ़ वर्ग का अहंकार, और जनता की उम्मीदों का टूटना। श्रीलंका इसका सबसे बड़ा उदाहरण बना, जहां 2022 में आर्थिक बदहाली और ईंधन संकट के चलते जनता ने राजपक्षे परिवार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। राष्ट्रपति को भागना पड़ा और पूरे देश में नई राजनीतिक व्यवस्था की मांग उठी। इसके बाद बांग्लादेश में भी हाल के महीनों में राजनीतिक तनाव और आंदोलन बढ़े। विपक्षी दलों का आरोप है कि सत्ता में बैठे नेता लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर रहे हैं। बेरोजगारी और बढ़ती कीमतों ने जनता का गुस्सा और भड़का दिया है। नेपाल में बार-बार की सरकारों की अदला-बदली और गठबंधन राजनीति ने जनता में निराशा पैदा की है। एक ओर आर्थिक विकास ठहर गया है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक वर्ग सत्ता की खींचतान में उलझा है। आम नेपाली नागरिक को लगता है कि लोकतंत्र उसके लिए नहीं, बल्कि नेताओं के स्वार्थ की सेवा में बदल गया है। मैडागास्कर में भी जनता ने भ्रष्टाचार और असमानता के खिलाफ प्रदर्शन किए। वहां गरीबी चरम पर है और राजनीतिक नेतृत्व ने जनता की उम्मीदों को पूरा नहीं किया। यह दिखाता है कि अफ्रीका हो या एशिया — जनता अब चुप रहने को तैयार नहीं है। हाल ही में जॉर्जिया में हजारों लोग सड़कों पर उतरे। यहां कारण थोड़ा अलग है — सरकार पर अधिनायकवाद का आरोप और नागरिक अधिकारों के हनन की आशंका। रूस के प्रभाव और यूरोपीय संघ से जुड़ने की चाह के बीच फंसे जॉर्जिया में युवाओं का गुस्सा साफ झलकता है। वे चाहते हैं कि देश लोकतंत्र की दिशा में आगे बढ़े, न कि किसी बाहरी ताकत के प्रभाव में। जॉर्जिया की संसद में प्रस्तावित ‘विदेशी एजेंट कानून’ को लेकर जनता का मानना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला कदम है। इस कानून के जरिये सरकार मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों को नियंत्रित करना चाहती है। यही वजह है कि छात्रों, पत्रकारों और आम नागरिकों ने इसका विरोध किया। इन घटनाओं को केवल स्थानीय असंतोष के रूप में देखना भूल होगी। असल में यह लोकतंत्र की गुणवत्ता में गिरावट का संकेत है। जब जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से उम्मीद खो देती है, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा कमजोर होता है। यही अविश्वास धीरे-धीरे आंदोलनों और अस्थिरता में बदल जाता है। एक और चिंताजनक पहलू यह है कि सरकारें असहमति को ‘विरोध’ या ‘देशद्रोह’ के रूप में देखने लगी हैं। सोशल मीडिया पर सेंसरशिप, पत्रकारों की गिरफ्तारी और विरोध प्रदर्शनों पर दमन – यह सब लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक की रिपोर्टें भी चेतावनी दे चुकी हैं कि विकासशील देशों में आर्थिक असमानता और राजनीतिक केंद्रीकरण बढ़ने से सामाजिक विभाजन गहरा रहा है। इससे लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। वर्तमान दौर में जनता सिर्फ ‘वोट देने’ तक सीमित नहीं रहना चाहती, वह ‘परिणाम’ देखना चाहती है। बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर जवाबदेही की मांग बढ़ रही है। लेकिन कई सरकारें इस आवाज को दबाने के बजाय राजनीतिक प्रचार और नियंत्रण पर अधिक ध्यान देती हैं। इस प्रवृत्ति को बदलना बेहद जरूरी है। लोकतंत्र तभी मजबूत रहेगा जब जनता को लगे कि उसकी आवाज का सम्मान हो रहा है, उसके मत का असर नीतियों पर पड़ रहा है। पारदर्शिता, जवाबदेही और समान विकास के बिना कोई भी लोकतंत्र टिक नहीं सकता। आज की युवा पीढ़ी इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिये न केवल सूचनाएं पा रही है, बल्कि अपनी बात खुलकर रख भी रही है। यही वजह है कि आंदोलनों का स्वरूप अब पहले जैसा नहीं रहा — वे तेज, संगठित और अंतरराष्ट्रीय ध्यान खींचने वाले हो गए हैं। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, मेडागास्कर और अब जॉर्जिया की घटनाओं में युवाओं की निर्णायक भूमिका रही है। मीडिया, खासकर स्वतंत्र और डिजिटल प्लेटफॉर्म, इस बदलाव के वाहक हैं। लेकिन अगर उन पर सरकारी नियंत्रण बढ़ता है, तो यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर कर देगा। इसलिए मीडिया की स्वतंत्रता और नागरिक अभिव्यक्ति का संरक्षण आज पहले से कहीं अधिक जरूरी है। एक-एक कर उठती इन जन लहरों को केवल विरोध नहीं, बल्कि “सिस्टम पर अविश्वास का संदेश” समझना चाहिए। यह दुनिया के नेताओं के लिए स्पष्ट चेतावनी है कि अगर जनता को सम्मान, सुनवाई और समान अवसर नहीं मिले तो लोकतंत्र का ढांचा खोखला पड़ सकता है। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, मैडागास्कर और जॉर्जिया की घटनाएं बताती हैं कि जब आर्थिक असंतुलन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अहंकार बढ़ता है, तो जनता अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी होती है। लोकतंत्र का असली अर्थ सिर्फ चुनाव नहीं, बल्कि जनकल्याण और जवाबदेही है। यही समय है जब दुनिया के तमाम देशों को इस सच्चाई को पहचानना होगा — जनता की आवाज को दबाया नहीं जा सकता, क्योंकि वही किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।