Thursday, November 13, 2025
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संपादकीय

Madhya Pradesh becomes the new epicenter of stubble burning crisis: It surpasses Punjab and Haryana in burning paddy residue!: पराली संकट का नया केंद्र बना मध्य प्रदेश: पंजाब-हरियाणा से आगे निकला धान अवशेष जलाने में !

November 13, 2025 06:46 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़   

पंजाब और हरियाणा को पराली जलाने के लिए अक्सर कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है, लेकिन अब मध्य प्रदेश इस मामले में नया ‘हॉटस्पॉट’ बनकर उभर रहा है। हाल के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में एक ही दिन में पराली जलाने की 1,052 घटनाएं दर्ज की गईं, जो पिछले वर्षों की तुलना में अभूतपूर्व हैं। यह संख्या न केवल स्थानीय प्रदूषण की स्थिति को बिगाड़ रही है, बल्कि दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे उत्तरी भारत की वायु गुणवत्ता को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। मध्य प्रदेश के विभिन्न जिलों—खासकर हरदा, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, सागर, विदिशा और बालाघाट—में उपग्रह से दर्ज की गईं आग की घटनाओं ने राज्य सरकार और पर्यावरण एजेंसियों की चिंताओं को बढ़ा दिया है। नासा और इसरो के सैटेलाइट डेटा के अनुसार, 10 से 12 नवंबर के बीच राज्य में पराली जलाने की घटनाओं में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।दरअसल, धान की कटाई के बाद किसानों के पास खेत खाली करने के लिए बहुत कम समय होता है, क्योंकि अगली फसल, खासतौर पर गेहूं की बुवाई का समय करीब होता है। ऐसे में मशीनरी या मजदूरी के खर्च से बचने के लिए किसान खेत में बची पराली को जलाना ही आसान विकल्प समझते हैं। यह प्रवृत्ति अब पंजाब-हरियाणा की सीमा से निकलकर मध्य प्रदेश के मैदानी इलाकों तक फैल चुकी है।पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, मध्य प्रदेश में इस वर्ष मानसून देर से खत्म हुआ, जिससे कटाई की प्रक्रिया भी देर से शुरू हुई। इसके चलते किसानों को समय की कमी महसूस हुई और पराली जलाना मजबूरी बन गया। साथ ही, सरकारी स्तर पर वैकल्पिक समाधानों का अभाव और किसानों में जागरूकता की कमी ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, पिछले हफ्ते मध्य प्रदेश से पराली के कारण उठे धुएं का प्रभाव भोपाल, इंदौर, जबलपुर और सागर तक फैल गया। इन शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक ‘बहुत खराब’ श्रेणी में दर्ज किया गया। 11 नवंबर को भोपाल का वायु गुणवत्ता सूचकांक 296 और इंदौर का 282 पहुंच गया, जो इस मौसम के औसत से कहीं ज्यादा है।पंजाब और हरियाणा की तुलना में मध्य प्रदेश की स्थिति इसलिए भी अधिक चिंताजनक है क्योंकि यहां धान की खेती हाल के वर्षों में बढ़ी है। नर्मदा और तवा नदियों के किनारे वाले इलाकों में किसानों ने परंपरागत फसलों की जगह धान को तरजीह देना शुरू किया है। इससे पराली की मात्रा भी तेजी से बढ़ी है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, राज्य में करीब 23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती होती है और इससे सालाना लगभग 50 लाख टन पराली उत्पन्न होती है।राज्य सरकार का दावा है कि उसने पराली प्रबंधन के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनमें बायो-डीकंपोज़र, मशीनरी सब्सिडी और जागरूकता अभियान शामिल हैं। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि इन योजनाओं का लाभ सीमित किसानों तक ही पहुंच सका है। ग्रामीण इलाकों में मशीनरी की कमी और किसानों की आर्थिक तंगी के कारण अधिकांश किसान वैकल्पिक तरीकों को अपनाने में असमर्थ हैं।कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि धान अवशेष जलाने पर प्रतिबंध के बावजूद नियंत्रण मुश्किल हो रहा है। राज्य में कई किसान ऐसे हैं जो पराली जलाने पर जुर्माने की कार्रवाई के बावजूद अपने पुराने तरीकों पर कायम हैं। अधिकारियों के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में पर्याप्त निगरानी और संसाधनों की कमी से रोकथाम मुश्किल है।पराली जलाने का असर सिर्फ वायु प्रदूषण तक सीमित नहीं है। यह मिट्टी की उर्वरता को भी नुकसान पहुंचाता है। लगातार जलाने से मिट्टी में जैविक तत्व नष्ट हो जाते हैं और उसकी जल धारण क्षमता घटती है। इससे अगले मौसम की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, पराली जलाने से मिट्टी में मौजूद 60 प्रतिशत नाइट्रोजन, 25 प्रतिशत फॉस्फोरस, 50 प्रतिशत पोटैशियम और लगभग 70 प्रतिशत कार्बन जलकर नष्ट हो जाता है।दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ने का एक बड़ा कारण भी यही है। हालांकि मध्य प्रदेश भौगोलिक रूप से थोड़ा दूर है, लेकिन वायु प्रवाह के पैटर्न के कारण यहां से उठने वाला धुआं उत्तर भारत की दिशा में फैल जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि नवंबर के महीने में हवा की दिशा उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर होती है, जिससे पराली जलाने का प्रभाव सैकड़ों किलोमीटर तक फैल जाता है।केंद्र सरकार और आयोग फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट ने राज्यों से समन्वित प्रयास करने की अपील की है। आयोग ने चेताया है कि पराली जलाने की बढ़ती घटनाएं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए खतरा बन सकती हैं। पंजाब और हरियाणा के साथ अब मध्य प्रदेश को भी “रेड जोन” में रखा गया है।कुछ विशेषज्ञों का मत है कि इस समस्या का समाधान केवल दंडात्मक उपायों से संभव नहीं है। इसके लिए दीर्घकालिक नीतिगत हस्तक्षेप की जरूरत है, जिसमें किसानों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना, पराली प्रबंधन मशीनों की उपलब्धता बढ़ाना और बायो-एनर्जी उद्योगों को प्रोत्साहन देना शामिल होना चाहिए। अगर पराली को ऊर्जा, बायोगैस या खाद में बदलने की ठोस व्यवस्था की जाए तो यह समस्या अवसर में बदल सकती है।मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में इस दिशा में प्रयास भी शुरू हुए हैं। उदाहरण के लिए, होशंगाबाद और सीहोर जिलों में कृषि विभाग ने पराली से बायोफ्यूल उत्पादन के लिए निजी कंपनियों के साथ समझौते किए हैं। इसके अलावा, किसानों को बायो-डीकंपोज़र के प्रयोग के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। लेकिन ये पहल अभी प्रारंभिक स्तर पर हैं और व्यापक प्रभाव डालने के लिए इन्हें बड़े पैमाने पर लागू करने की आवश्यकता है।वर्तमान परिदृश्य यह दर्शाता है कि पराली जलाने की समस्या अब किसी एक राज्य तक सीमित नहीं रही। पंजाब-हरियाणा के बाद मध्य प्रदेश का इसमें शामिल होना संकेत देता है कि कृषि प्रणाली में संरचनात्मक सुधार की तत्काल आवश्यकता है। यदि नीति-निर्माता, किसान और स्थानीय प्रशासन मिलकर वैज्ञानिक और आर्थिक रूप से व्यवहार्य विकल्प नहीं खोजते, तो यह समस्या हर साल और व्यापक होती जाएगी।पर्यावरणविदों का स्पष्ट मत है कि पराली जलाने पर नियंत्रण केवल सरकारी आदेशों से नहीं बल्कि किसानों की भागीदारी और प्रोत्साहन से ही संभव है। अब समय आ गया है कि राज्य सरकारें प्रतिस्पर्धा की बजाय सहयोग की राह अपनाएं और कृषि-आधारित प्रदूषण नियंत्रण के लिए साझा रोडमैप तैयार करें।

 

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