Wednesday, November 12, 2025
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संपादकीय

"Delhi blasts: A breach in the capital's security wall or a new wave of terror?: "दिल्ली ब्लास्ट: राजधानी की सुरक्षा दीवार में दरार या आतंक की नई दस्तक?

November 11, 2025 08:47 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़  

दिल्ली में हुए हालिया ब्लास्ट ने न केवल राष्ट्रीय राजधानी की सुरक्षा प्रणाली की कमजोरियों को उजागर किया है, बल्कि देश के खुफिया नेटवर्क और आतंक-रोधी तंत्र की तैयारी पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। घटना के बाद दिल्ली पुलिस, एनआईए और केंद्रीय एजेंसियों ने जांच शुरू कर दी है। हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस विस्फोट के पीछे किस संगठन या नेटवर्क का हाथ है। सुरक्षा विशेषज्ञों और पूर्व खुफिया अधिकारियों का कहना है कि यह केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक गहरी चेतावनी है कि भारत की राजधानी अब भी आतंकी संगठनों के निशाने पर है। घटना स्थल की प्रारंभिक जांच में यह सामने आया है कि विस्फोट में अत्याधुनिक रासायनिक विस्फोटक का इस्तेमाल किया गया, जो सीमित मात्रा में भी भारी नुकसान पहुंचाने में सक्षम होता है। रक्षा विश्लेषक ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) एस.के. चतुर्वेदी का कहना है कि ऐसे हमले केवल हिंसा के लिए नहीं, बल्कि किसी संगठन की सक्रियता का संदेश देने के उद्देश्य से भी किए जाते हैं। उनके अनुसार, “जब किसी देश की राजधानी में धमाका होता है, तो यह सुरक्षा एजेंसियों को सीधी चुनौती होती है और एक अंतरराष्ट्रीय संकेत भी कि हमला करने की क्षमता अब भी मौजूद है।”पूर्व रॉ अधिकारी आर.एस. सिद्धू का मानना है कि बीते वर्षों में आतंक-रोधी गतिविधियों का फोकस सीमाई इलाकों और जम्मू-कश्मीर तक सीमित हो गया था, जिससे महानगरों में सतर्कता का स्तर कमजोर हुआ है। वे कहते हैं, “यह धमाका इस बात की याद दिलाता है कि शहरी इलाकों में स्लीपर सेल अब भी सक्रिय हैं। ये छोटे लेकिन अत्यधिक प्रशिक्षित नेटवर्क हैं जो कम संसाधनों में भी बड़ा नुकसान कर सकते हैं।”सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, भारत के खुफिया ढांचे की सबसे बड़ी चुनौती ‘समन्वय की कमी’ है। कई बार विभिन्न एजेंसियों को आंशिक सूचनाएँ मिलती हैं, लेकिन उनके बीच तालमेल न होने के कारण उन्हें समय रहते ठोस कार्रवाई में नहीं बदला जा पाता। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के एक पूर्व अधिकारी ने कहा, “हमारे इंटेलिजेंस सिस्टम में सूचनाएँ तो हैं, लेकिन वे रिएक्टिव हैं, प्रोएक्टिव नहीं। हमें जानकारी तो मिलती है, पर उसे रोकथाम में बदलने की क्षमता अब भी कमजोर है।”दिल्ली जैसे महानगर में हजारों सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार, उनकी वास्तविक उपयोगिता सीमित है क्योंकि फुटेज की निगरानी और विश्लेषण रियल-टाइम में नहीं हो पाता। साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. समीर तिवारी का कहना है कि “हमारे पास डेटा तो बहुत है, लेकिन उसे तुरंत विश्लेषित कर उपयोगी सूचना में बदलने का ढांचा अभी विकसित नहीं हुआ है।” इसी तरह, मेट्रो स्टेशन, बस टर्मिनल और बाजारों में स्कैनिंग व जांच की व्यवस्थाएं अधिकतर प्रतीकात्मक हैं। रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी नीरा चौधरी के अनुसार, “राजधानी में सुरक्षा प्रोटोकॉल की समीक्षा हर छह महीने में होनी चाहिए, लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता है। यही लापरवाही हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाती है।”हर आतंकी हमले के बाद राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो जाती है। विपक्ष सरकार की लापरवाही को मुद्दा बनाता है और सरकार सुरक्षा एजेंसियों को ‘फ्री हैंड’ देने की बात कहती है। मगर विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार की है। लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) संजय कुमार का कहना है कि “हम हर हमले के बाद जांच समिति तो बनाते हैं, पर उसकी सिफारिशें कभी लागू नहीं होतीं। आतंकवाद से निपटने की नीति को केवल दस्तावेजों से निकालकर ज़मीनी हकीकत में बदलना होगा। सुरक्षा केवल सेना या पुलिस का काम नहीं, बल्कि नागरिक संस्कृति का भी हिस्सा होना चाहिए।”अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक प्रोफेसर अरविंद नारायण का कहना है कि इस हमले को क्षेत्रीय भू-राजनीतिक हालात से अलग करके नहीं देखा जा सकता। हाल के महीनों में पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर आतंकी गुटों की गतिविधियाँ फिर से बढ़ी हैं। यह भी संभव है कि भारत में कुछ स्लीपर मॉड्यूल को सक्रिय करने की कोशिश की जा रही हो। उनके अनुसार, “यह हमला चाहे स्थानीय स्तर पर हुआ हो, लेकिन इसकी प्रेरणा या वित्तीय सहयोग सीमापार से मिलने की पूरी संभावना है। आज आतंकवाद एक वैश्विक नेटवर्क है, जो किसी एक देश तक सीमित नहीं रहा।”सुरक्षा विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर जोर देता है कि किसी भी शहर की सुरक्षा केवल पुलिस या खुफिया एजेंसियों की जिम्मेदारी नहीं होती, बल्कि नागरिकों की जागरूकता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। रिटायर्ड डीजीपी पी.एन. त्रिपाठी कहते हैं, “दिल्ली जैसे शहर में हर दिन लाखों लोग आवाजाही करते हैं, लेकिन संदिग्ध गतिविधियों की सूचना देने की संस्कृति बहुत कमजोर है। नागरिक सतर्कता ही किसी भी हमले को रोकने की पहली दीवार होती है।”प्रौद्योगिकी आधारित सुरक्षा समाधानों को लेकर भी विशेषज्ञों में सहमति है कि भारत को अब अपने सुरक्षा ढांचे को डिजिटल रूप से अधिक सक्षम बनाना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, फेस रिकग्निशन और डेटा इंटीग्रेशन जैसी तकनीकों को निगरानी प्रणाली से जोड़ना जरूरी है। आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. रेखा आचार्य के अनुसार, “भविष्य की सुरक्षा केवल हथियारों या मानव संसाधन पर नहीं, बल्कि तकनीकी दक्षता पर निर्भर करेगी। हर हमले के बाद हमें सीख लेकर अपने सिस्टम को अपडेट करना चाहिए।”दिल्ली ब्लास्ट ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि आतंक का खतरा खत्म नहीं हुआ है, बल्कि उसने अपने रूप और तरीके बदल लिए हैं। यह घटना केवल एक भयावह हादसा नहीं, बल्कि सुरक्षा तंत्र के लिए आत्ममंथन का अवसर है। विशेषज्ञों की राय है कि भारत को अपनी सुरक्षा नीति को प्रतिक्रियात्मक से सक्रिय बनाना होगा। बेहतर इंटेलिजेंस समन्वय, नागरिक भागीदारी और तकनीकी नवाचार के माध्यम से ही ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है।राजधानी की सुरक्षा, पूरे राष्ट्र की सुरक्षा का प्रतीक है। अगर इस आईने में दरारें समय रहते नहीं भरी गईं, तो यह केवल एक शहर की नहीं, बल्कि पूरे देश की असुरक्षा की तस्वीर बनेगी। इसलिए अब जरूरत है कि दिल्ली ब्लास्ट को एक और घटना के रूप में नहीं, बल्कि एक सबक की तरह देखा जाए — ताकि आने वाले समय में राजधानी और सुरक्षित तथा सजग बन सके।

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