भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इंडिगो में हाल के दिनों में सामने आया परिचालन संकट भारतीय एविएशन सेक्टर की गहराई में छिपी पुरानी कमजोरियों को फिर एक बार उजागर करता है। देश की सबसे बड़ी एयरलाइन होने के बावजूद इंडिगो के कई उड़ानें रद्द होने, भारी देरी, कर्मचारियों की कमी, तकनीकी बाधाओं और शेड्यूलिंग अव्यवस्था ने एयर ट्रैवल करने वाले लाखों यात्रियों को असुविधा में डाला है। यह स्थिति सिर्फ एक कंपनी तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय विमानन क्षेत्र की नीति-संबंधी खामियों, नियामक तैयारी और सरकारी दृष्टिकोण पर भी गंभीर प्रश्न उठाती है। एविएशन इंडस्ट्री भारत में तेजी से बढ़ता क्षेत्र है, लेकिन लगातार आर्थिक दबाव, ऑपरेशनल लागत में वृद्धि, ईंधन की महंगाई, रुट परमिशन की जटिलताएं और हवाईअड्डा शुल्क एयरलाइनों को कमजोर कर रहे हैं। इंडिगो का संकट यह बताता है कि एक स्थिर और मजबूत दिखने वाली एयरलाइन भी अचानक परिचालन दबाव में फंस सकती है। एयरलाइन स्टाफ की कमी और काम के बोझ को लेकर कई महीनों से शिकायतें रही हैं। यह स्थिति संकेत देती है कि मानव संसाधन प्रबंधन और लंबी अवधि की भर्ती रणनीति में कंपनियों ने लापरवाही बरती। अब सवाल यह उठता है कि नियामक और सरकारी संस्थाएं समय रहते इन चुनौतियों को क्यों नहीं पहचान पाईं? डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन की भूमिका इस मामले में चर्चा के केंद्र में है। बेशक डी जी सी ए समय-समय पर सर्कुलर और दिशानिर्देश जारी करती है, लेकिन इंडस्ट्री की तेज़ी से बदलती गति को देखते हुए नीति-निर्माण की प्रक्रिया में अधिक तत्परता और निगरानी की आवश्यकता है। जब अचानक एक एयरलाइन व्यापक तकनीकी या स्टाफिंग संकट का सामना करती है, तो इसे रोकने या कम करने के लिए सतर्क नियामक व्यवस्था मौजूद क्यों नहीं थी—यही वह प्रश्न है जिसके उत्तर यात्री भी चाहते हैं और विशेषज्ञ भी। भारतीय विमानन नीति भी इस संकट के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार दिखाई देती है। लंबे समय से एयरलाइंस कम किराए की प्रतिस्पर्धा में फंसी हैं, जिससे उनकी वित्तीय स्थिरता प्रभावित होती है। लगातार बढ़ती लागत और कम मुनाफे की वजह से एयरलाइंस के पास स्टाफ ट्रेनिंग, तकनीकी उन्नयन और परिचालन सुरक्षा में निवेश करने के सीमित विकल्प रह जाते हैं। इंडिगो जैसी कंपनी, जिसे एक मजबूत ब्रांड और व्यापक रूट नेटवर्क के लिए जाना जाता है, अगर ऐसी स्थिति में आ जाए तो छोटे और संघर्षरत एयरलाइंस के हालात की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।एविएशन सेक्टर में नीति-संगत सुधार, इन्फ्रास्ट्रक्चर विस्तार और मानव संसाधन विकास पर अभी भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। हवाईअड्डों की क्षमता बढ़ाने और टेक्नोलॉजी के आधुनिक इस्तेमाल जैसे मुद्दों पर सरकार ने पहल की है, लेकिन एयरलाइंस के परिचालन ढांचे को मज़बूत बनाने पर उतनी गंभीरता नहीं दिखती।इंडिगो संकट यह भी दर्शाता है कि भारत जैसे विशाल देश में, जहां हवाई यात्रा तेजी से सामान्य होती जा रही है, किसी एक बड़ी एयरलाइन में संकट का प्रभाव पूरे सेक्टर पर पड़ सकता है। यात्रियों का भरोसा, एयर ट्रैफिक का संतुलन, हवाईअड्डा प्रबंधन और अर्थव्यवस्था में योगदान—सब पर इसका असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो कई देशों में एयरलाइंस के परिचालन पर कठोर निगरानी और व्यापक संकट प्रबंधन तंत्र लागू हैं। भारत में भी एक मजबूत एविएशन क्राइसिस मैकेनिज्म विकसित करने की जरूरत है, जो अचानक आने वाले परिचालन या तकनीकी संकट पर तुरंत हस्तक्षेप कर सके। साथ ही एयरलाइंस को भी अपनी आंतरिक क्षमताओं को मजबूत करना होगा, ताकि संकट से पहले ही समाधान तलाशे जा सकें।इंडिगो की मौजूदा स्थिति भारतीय एविएशन इंडस्ट्री के लिए चेतावनी है। यदि सरकार, नियामक संस्थान और एयरलाइंस मिलकर समग्र सुधारों की दिशा में कदम नहीं उठाते, तो भविष्य में ऐसी समस्याएं बार-बार सामने आएंगी। विमानन क्षेत्र भारत की आर्थिक वृद्धि की धुरी बन सकता है, लेकिन इसके लिए नीतियों में दूरदर्शिता, कंपनियों में पारदर्शिता और नियामक व्यवस्था में कठोरता बेहद जरूरी है।इंडिगो का संकट सिर्फ एक एयरलाइन की कहानी नहीं है, बल्कि यह देश की एविएशन नीति की दिशा और प्राथमिकताओं पर गंभीर पुनर्विचार का मौका भी है। अगर इस अवसर को सुधार की दिशा में नहीं बदला गया तो आने वाले वर्षों में एविएशन सेक्टर के लिए चुनौतियां और जटिल हो सकती हैं।