Wednesday, November 26, 2025
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संपादकीय

The rupee is faltering under pressure from the dollar, but a strong comeback is certain if the right policy measures are taken.: डॉलर के दबाव में डगमगाता रुपया, लेकिन सही नीतिगत कदम उठते ही मजबूत वापिसी भी तय !

November 26, 2025 08:43 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़ 

जनवरी से दिसंबर 2025 के बीच भारतीय रुपये ने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 4.3 प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की है। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एशिया की प्रमुख मुद्राओं में भारत की स्थिति को लेकर गंभीर चिंताओं का संकेत है, जहां रुपया इस वर्ष सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली करंसी बनकर उभरा है। यह गिरावट ऐसे समय में आई है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था भू-राजनीतिक तनावों, तेल बाज़ार की उथल-पुथल और बड़े आर्थिक देशों के मौद्रिक फैसलों से झूझ रही है। मगर सवाल यह है कि रुपये में इतनी तेज़ गिरावट क्यों आई, और इसका भारत की अर्थव्यवस्था पर आगे क्या असर पड़ सकता है? रुपये की कमजोरी के पीछे कई घरेलू और वैश्विक कारक जिम्मेदार हैं। सबसे बड़ा कारण है अमेरिका की कड़ी मौद्रिक नीति। फेडरल रिज़र्व द्वारा ब्याज दरों को उच्च स्तर पर बनाए रखने से डॉलर इंडेक्स मजबूत हुआ और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से पूंजी का बहिर्वाह तेज़ हो गया। जब निवेशक सुरक्षित संपत्तियों की तलाश में होते हैं, तो वे डॉलर की ओर रुख करते हैं, जिससे विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं पर दबाव बढ़ता है। भारतीय रुपया भी इसी प्रक्रिया का शिकार बना।इसके साथ ही, अंतरराष्ट्रीय व्यापार संतुलन भी रुपये पर भारी पड़ता दिख रहा है। भारत का व्यापार घाटा इस वर्ष कई महीनों में रिकॉर्ड स्तर के आसपास रहा। कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और मध्य-पूर्व में बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों ने भारत के आयात बिल में अतिरिक्त दबाव डाल दिया। भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों का लगभग 85 प्रतिशत आयात करता है, इसलिए जब तेल महंगा होता है तो विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ती है और घरेलू मुद्रा कमजोर होती जाती है।विदेशी मुद्रा विश्लेषकों का कहना है कि रुपये की मौजूदा स्थिति अस्थायी दबावों के साथ-साथ संरचनात्मक चुनौतियों का भी नतीजा है। बाज़ार विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगर भारत और अमेरिका के बीच लंबित व्यापार समझौता जल्द पूरा नहीं होता है, तो रुपये पर और दबाव बढ़ सकता है। कई विश्लेषकों ने यह चेतावनी भी दी है कि रुपया अगले कुछ महीनों में 1 डॉलर = 90 रुपये के स्तर तक फिसल सकता है। यह अनुमान भले ही अभी आशंकाओं पर आधारित हो, मगर इसे नज़रअंदाज़ करना भी संभव नहीं, क्योंकि बाज़ार मनोविज्ञान अक्सर अपेक्षाओं के आधार पर ही प्रतिक्रिया देता है।भारत-अमेरिका व्यापार समझौते का रुकना भी चिंता का विषय है। दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में शुल्क, आयात मानकों और सेवाओं को लेकर असहमति है। यह समझौता भारत के निर्यातकों के लिए बड़ा राहत पैकेज साबित हो सकता है, साथ ही विदेशी निवेशकों के भरोसे को भी मजबूत कर सकता है। अगर यह वार्ता आगे बढ़ती है, तो विदेशी विनिमय बाज़ार को सकारात्मक संकेत मिल सकते हैं। मगर देरी से अनिश्चितता बढ़ती है, और यही अनिश्चितता रुपये की कमजोरी का मुख्य कारण बन रही है।देश की मौद्रिक नीति भी इस समीकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए ब्याज दरों को स्थिर रखने का निर्णय लिया, लेकिन इससे विदेशी निवेश आकर्षित नहीं हो पा रहा है। जब अमेरिका ऊंची ब्याज दरों पर कायम रहता है और भारत दर वृद्धि नहीं करता, तो ब्याज दरों का अंतर बढ़ जाता है, जिससे डॉलर निवेश अधिक आकर्षक बनता है। इस परिस्थिति में निवेशकों का झुकाव स्वाभाविक रूप से अमेरिकी बाज़ारों की ओर रहता है।रुपये की गिरावट से आम भारतीय पर भी असर पड़ता है। आयातित वस्तुएं महंगी हो जाती हैं, जिसमें ईंधन से लेकर इलेक्ट्रॉनिक सामान और दवाइयां तक शामिल हैं। भारत जैसे देश में जहां उपभोक्ता वस्तुओं का बड़ा हिस्सा आयातित है, यह गिरावट महंगाई को फिर से उकसा सकती है। हालांकि खाद्य मुद्रास्फीति में कुछ नियंत्रण दिखाई दे रहा है, मगर ईंधन और रसायन जैसे सेक्टर रुपये की गिरावट से सीधे प्रभावित होते हैं, और इसका असर धीरे-धीरे उपभोक्ता तक पहुंचता है।इस परिस्थिति में, नीति-निर्माताओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। भारत को विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए नीतिगत स्पष्टता और बाहरी निवेशकों को स्थिर वातावरण उपलब्ध कराना होगा। इसके साथ ही, निर्यात क्षमता बढ़ाना और आयात बिल नियंत्रित करना भी अनिवार्य है। कच्चे तेल के विकल्पों और नवीकरणीय ऊर्जा पर अधिक ध्यान देकर भारत मुद्रा दबाव को कम कर सकता है।यह भी सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मूलभूत स्थिति अब भी मजबूत है—जी डी पी वृद्धि दर एशिया में सबसे तेज़ है, विदेशी मुद्रा भंडार स्थिर है और बैंकिंग क्षेत्र सुधरा है। लेकिन वैश्विक आर्थिक दबावों के दौर में सिर्फ बुनियादी मजबूती काफी नहीं होती। मुद्रा बाज़ार संवेदनशील होता है और छोटे संकेत भी बड़े उतार-चढ़ाव का कारण बन जाते हैं। अंततः, रुपये की गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का एक दर्पण है। यह भारत के लिए चेतावनी भी है और अवसर भी। अगर सरकार व्यापार नीतियों में ठोस सुधार करती है, समझौतों को आगे बढ़ाती है, और ऊर्जा क्षेत्र में आयात पर निर्भरता कम करती है, तो रुपया फिर से स्थिरता की ओर लौट सकता है। मगर अगर इन मुद्दों पर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो विशेषज्ञों की 90 रुपये प्रति डॉलर की आशंका हकीकत का रूप ले सकती है—और इसका प्रभाव पूरे भारतीय आर्थिक ढांचे पर महसूस किया जाएगा।

 

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