भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहाँ सत्ता के समीकरणों का केंद्र वही नेता है जिसे पूरे देश में रणनीति और राजनीतिक प्रबंधन की कला का उस्ताद माना जाता है—नीतीश कुमार। जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के विधायक दल ने उन्हें एक बार फिर अपना नेता चुन लिया है, और इस फैसले के साथ ही यह लगभग तय हो गया है कि वे दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले हैं। यह उपलब्धि उन्हें न केवल बिहार में, बल्कि देशभर की राजनीति में उन विरले नेताओं की श्रेणी में रखती है, जिन्होंने दशकों तक अपनी उपयोगिता और प्रभाव को कायम रखा है। बिहार की राजनीति हमेशा गठबंधन की उथल-पुथल से भरी रही है। यहां किसी भी पार्टी के लिए अकेले बहुमत पाना आसान नहीं रहा, और इसी के चलते राजनीतिक स्थिरता अक्सर गठबंधनों के भरोसे ही टिकी रहती है। ऐसे माहौल में नीतीश कुमार का लगातार सत्ता में बने रहना बताता है कि वे न केवल अवसरों को पहचानने में माहिर हैं, बल्कि राजनीतिक जोखिमों को कम करने की क्षमता भी रखते हैं। यही कारण है कि उनका प्रभाव समय-समय पर आलोचनाओं के बावजूद कम नहीं हुआ, बल्कि गठबंधन-आधारित राजनीति में उनकी प्रासंगिकता और बढ़ी है।नीतीश कुमार को फिर से विधायक दल का नेता चुनना इस बात का संकेत है कि जेडीयू अभी भी मजबूत, अनुभवी और व्यापक जनस्वीकार्यता वाले नेतृत्व पर भरोसा रखना चाहती है। यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि पार्टी को आने वाले समय में नीतीश के राजनीतिक कौशल की आवश्यकता है। बिहार की सामाजिक बनावट जटिल है, जातीय समीकरण तेज़ी से बदलते रहते हैं और राजनीतिक गठजोड़ अक्सर क्षणभंगुर साबित होते हैं। ऐसे परिदृश्य में एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत होती है जिसकी जमीनी पकड़ मजबूत हो और जो विभिन्न दलों के बीच संतुलन बनाने की क्षमता रखता हो।नीतीश कुमार ने पिछले दो दशकों में लगातार यह सिद्ध किया है कि वे केवल सत्ता के नेता नहीं, बल्कि शासन और प्रशासन में भी दक्ष हैं। 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता में लौटने के बाद से उन्होंने सड़कों, पुलों, शिक्षा, शराबबंदी, महिला सशक्तीकरण और पंचायतों में भागीदारी जैसे मुद्दों पर कई निर्णय लिए, जो उनकी प्रशासनिक छवि को मजबूत बनाने में सहायक रहे। हालांकि कई नीतियों की आलोचना भी हुई, लेकिन उनकी साख एक ऐसे नेता की बनी रही जो शासन को प्राथमिकता देता है।एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से देखें तो नीतीश की राजनीति तीन स्तंभों पर टिकी रही है—व्यावहारिकता, संतुलन और समयानुकूल निर्णय। उन्होंने कभी भी राजनीति को कठोर वैचारिक खांचे में नहीं बांधा, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार फैसले लिए। यह बात सही है कि उनके बार-बार गठबंधन बदलने के निर्णयों पर विपक्ष ने उन्हें ‘यू-टर्न’ नेता कहा, लेकिन यह भी सत्य है कि उसी लचीलेपन ने उन्हें सत्ता से जुड़े रहने में मदद की। बिहार जैसे राज्य में, जहाँ बहुमत का गणित अक्सर स्थिर नहीं रहता, यह रणनीति उनके लिए राजनीतिक पूंजी साबित हुई।दसवीं बार मुख्यमंत्री बनने की संभावना उनके अनुभव और प्रभाव का प्रमाण है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतने लंबे समय तक सत्ता संरचना में बने रहना केवल राजनीतिक कौशल का मामला नहीं, बल्कि जनाधार का भी संकेत है। बिहार के ग्रामीण और शहरी दोनों वर्गों में नीतीश की स्वीकार्यता बनी हुई है। वे उन कुछ नेताओं में शामिल हैं जिन्हें विरोधी दलों के वोटर भी एक भरोसेमंद विकल्प के रूप में देखते हैं।लेकिन इस नए कार्यकाल के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। बेरोजगारी बिहार की सबसे बड़ी समस्या है, खासकर युवा वर्ग के बीच निराशा बढ़ी है। शिक्षा और स्वास्थ्य के ढांचे में अभी भी व्यापक सुधार की जरूरत है। पलायन आज भी बड़ी चुनौती है, और उद्योगों के विकास में बिहार अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। नीतीश कुमार के सामने यह सवाल भी खड़ा है कि क्या वे आने वाले वर्षों में इन समस्याओं के स्थायी समाधान की दिशा में ठोस कदम उठा पाएंगे।इसके अतिरिक्त, राजनीतिक स्थिरता भी एक बड़ा मुद्दा है। बिहार की गठबंधन राजनीति में अप्रत्याशित मोड़ किसी भी समय आ सकते हैं। पिछले वर्षों में कई बार देखा गया कि एक गठबंधन में शामिल होकर बनी सरकार कुछ महीनों बाद ही टूट गई। यह अनिश्चितता जनता के बीच असंतोष पैदा करती है। ऐसे में उनका नया कार्यकाल एक महत्वपूर्ण परीक्षा भी होगा—क्या वे इस बार सरकार को स्थिर रख पाएंगे और शासन को लंबी अवधि तक सुचारू रूप से चलाने की योजना पर अमल कर पाएंगे?राष्ट्रीय स्तर पर भी नीतीश कुमार की भूमिका पिछले कुछ सालों में उतार-चढ़ाव से भरी रही है। वे कई बार विपक्षी धड़े के संभावित प्रधानमंत्री चेहरे के रूप में उभरे, कई बार उन्होंने केंद्र के साथ सामंजस्य बैठाया। उनकी राजनीति का यह द्वंद्व अब भी जारी है—क्या वे पूरी तरह राज्य की राजनीति में केंद्रित रहेंगे या फिर राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएँ एक बार फिर तेज होंगी, यह आने वाले समय में स्पष्ट होगा।फिलहाल स्थिति यह है कि बिहार की राजनीति की धुरी फिर से उसी व्यक्ति के पास लौट आई है जो वर्षों से राज्य की राजनीति का सबसे चतुर, अनुभवी और प्रभावकारी चेहरा रहा है। नीतीश कुमार का दसवाँ कार्यकाल एक राजनीतिक उपलब्धि ही नहीं, बल्कि शासन, अनुभव और रणनीति के मेल का प्रतीक है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वे एक बार फिर बिहार को स्थिरता, सुशासन और विकास की ओर मोड़ पाते हैं या फिर राज्य की राजनीति नई उलझनों की ओर बढ़ती है।उनका यह नया अध्याय बिहार के भविष्य को प्रभावित करेगा और यह भी तय करेगा कि भारतीय राजनीति के “चाणक्य” के रूप में उनकी यह पहचान आने वाले वर्षों में और मजबूत होगी या नई चुनौतियाँ उन्हें किसी अलग दिशा में ले जाएँगी।