भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत में मंदिर केवल पूजा के स्थान नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र माने जाते हैं। जब बात तिरुपति बालाजी मंदिर की हो, तो यह न केवल भारत का बल्कि विश्व का सबसे समृद्ध धार्मिक स्थल है। हर साल यहां करोड़ों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं और भगवान वेंकटेश्वर को अर्पित प्रसाद को “ईश्वर का वरदान” मानते हैं। लेकिन हाल ही में सीबीआई की एक रिपोर्ट ने ऐसी सच्चाई उजागर की है जिसने श्रद्धा की नींव को हिला दिया है। जांच में खुलासा हुआ है कि तिरुपति मंदिर को 68 लाख किलोग्राम नकली घी की आपूर्ति की गई। यह घी एक ऐसी डेयरी से खरीदा गया जिसने कभी दूध या मक्खन खरीदा ही नहीं था। सीबीआई रिपोर्ट के अनुसार, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम को प्रसाद बनाने के लिए बड़े पैमाने पर घी की सप्लाई की जाती है। यही घी प्रसिद्ध “लड्डू प्रसादम” तैयार करने में उपयोग होता है, जिसे भक्त पवित्र मानकर घर ले जाते हैं। लेकिन जांच में सामने आया कि कर्नाटक की एक निजी डेयरी कंपनी ने वर्षों तक मंदिर प्रशासन को नकली घी की आपूर्ति की। कंपनी ने न तो दूध खरीदा, न मक्खन बनाया, फिर भी करोड़ों रुपए का घी सप्लाई किया। जांच में यह भी पाया गया कि घी के नाम पर सस्ते वनस्पति तेल और रासायनिक तत्वों का मिश्रण तैयार कर मंदिर तक पहुंचाया गया। मामले का खुलासा तब हुआ जब टीटीडी की ऑडिट कमेटी ने घी की गुणवत्ता पर सवाल उठाए। नमूनों की जांच में पाया गया कि घी की शुद्धता संदिग्ध है। इसके बाद जांच सीबीआई को सौंप दी गई। एजेंसी ने कंपनी के वित्तीय रिकॉर्ड, उत्पादन क्षमता और कच्चे माल की खरीद से जुड़े दस्तावेजों की जांच की। परिणाम चौंकाने वाले थे—कंपनी के पास न तो उत्पादन इकाई थी, न दूध या मक्खन की खरीद-बिक्री का कोई रिकॉर्ड। इसके बावजूद उसने मंदिर को 68 लाख किलो “घी” सप्लाई करने का दावा किया। साथ ही फर्जी बिल, झूठे स्टॉक रिकॉर्ड और मनी ट्रेल के जरिए करोड़ों रुपए का लेन-देन किया गया। यह घोटाला केवल वित्तीय अनियमितता नहीं बल्कि आस्था के साथ धोखा है। भगवान के नाम पर नकली प्रसाद परोसना एक आध्यात्मिक अपराध है। तिरुपति मंदिर हर साल लगभग 25 से 30 करोड़ लड्डू बनाता है और प्रत्येक लड्डू में घी की निश्चित मात्रा होती है। इतने बड़े पैमाने पर आपूर्ति का ठेका मिलना किसी व्यावसायिक अवसर से कम नहीं। इसी प्रतिस्पर्धा और लालच ने धार्मिक पवित्रता को भ्रष्ट कर दिया। प्रसाद केवल खाद्य पदार्थ नहीं होता, यह श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है। जब कोई व्यक्ति प्रसाद ग्रहण करता है, तो वह उसे ईश्वर का आशीर्वाद मानता है, न कि एक उत्पाद। ऐसे में नकली घी से बना प्रसाद केवल कानून का उल्लंघन नहीं बल्कि करोड़ों भक्तों की भावनाओं के साथ विश्वासघात है। अब सवाल यह उठता है कि मंदिर प्रशासन इतने लंबे समय तक इस घोटाले से अनजान कैसे रहा। क्या गुणवत्ता जांच में जानबूझकर लापरवाही की गई? क्या कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से यह साजिश चलती रही? सीबीआई रिपोर्ट में यह संकेत हैं कि कुछ टीटीडी अधिकारियों और सप्लायरों के बीच सांठगांठ के सबूत मिले हैं। अब तक कई अधिकारियों से पूछताछ की जा चुकी है और कुछ को निलंबित भी किया गया है। सीबीआई की फॉरेंसिक जांच में यह पाया गया कि घी में वनस्पति तेल, कृत्रिम फ्लेवर और पेट्रोलियम आधारित तत्वों का उपयोग किया गया था। यह मिश्रण स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। केंद्र सरकार ने इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए खाद्य सुरक्षा विभाग को जांच में शामिल किया है और मंदिर प्रशासन को सभी सप्लायरों की दोबारा जांच करने के निर्देश दिए गए हैं। धार्मिक संस्थानों से जुड़ा ऐसा भ्रष्टाचार केवल उस संस्था को नहीं, बल्कि पूरे समाज के नैतिक ढांचे को प्रभावित करता है। लोग जो ईश्वर में निःस्वार्थ विश्वास रखते हैं, उनके मन में संदेह और अविश्वास पनपने लगता है। इससे समाज का आध्यात्मिक संतुलन कमजोर पड़ता है। इसलिए पारदर्शिता और जवाबदेही केवल राजनीति या सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि धार्मिक संस्थाओं में भी ऑडिट, ट्रैकिंग और गुणवत्ता नियंत्रण जैसी व्यवस्था आवश्यक है। यह घोटाला बताता है कि जब आस्था और व्यवस्था के बीच संतुलन टूटता है, तो धर्म भी भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है। अब जरूरी है कि मंदिर प्रशासन की वित्तीय प्रणाली पूरी तरह डिजिटाइज की जाए, सप्लायरों की थर्ड पार्टी क्वालिटी जांच अनिवार्य हो, धार्मिक संस्थानों की स्वतंत्र ऑडिटिंग एजेंसी बने और दोषियों पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाए ताकि भविष्य में कोई भगवान के नाम पर धोखा देने की हिम्मत न करे। जब लोग भगवान को ही धोखा देने लगते हैं, तो यह केवल अपराध नहीं बल्कि समाज के नैतिक पतन का संकेत है। तिरुपति मंदिर में नकली घी घोटाला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं हमारी भक्ति भी धीरे-धीरे बाज़ार की चमक में तो नहीं खो रही। अब समय है कि हम न केवल अपने विश्वास की रक्षा करें बल्कि उन संस्थानों की निगरानी भी करें जो उस विश्वास का प्रतीक हैं, ताकि श्रद्धा फिर से पवित्र, पारदर्शी और भरोसेमंद बन सके।