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संपादकीय

Youthful enthusiasm vs. political inertia: A clash between the new generation of the BJP and the aging Congress leadership: युवा जोश बनाम सियासी जड़ता: भाजपा की नई पीढ़ी और कांग्रेस के बुजुर्ग नेतृत्व की टक्कर

December 18, 2025 10:18 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़     

भारतीय राजनीति एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहाँ नेतृत्व की उम्र, ऊर्जा और दृष्टि पर खुली बहस तेज़ हो गई है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में युवा और अपेक्षाकृत नई पीढ़ी के नेताओं को लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पर “बुजुर्गवाद” यानी उम्रदराज़ नेतृत्व पर अत्यधिक निर्भरता का आरोप लग रहा है। यह बहस केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके केंद्र में संगठनात्मक सोच, भविष्य की रणनीति और बदलते मतदाता वर्ग की अपेक्षाएँ भी हैं।भाजपा ने पिछले एक दशक में नेतृत्व निर्माण को अपनी राजनीति का अहम स्तंभ बनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं भले ही उम्र के लिहाज़ से वरिष्ठ हों, लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी ने राज्यों और केंद्र दोनों स्तरों पर युवा चेहरों को उभारने की रणनीति अपनाई है। केंद्रीय मंत्रिमंडल से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पार्टी संगठन तक, 40 और 50 की उम्र के नेताओं को जिम्मेदारियाँ सौंपी गई हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, असम में हिमंत बिस्वा सरमा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और ओडिशा में मोहन चरण माझी जैसे उदाहरण यह दिखाते हैं कि भाजपा सत्ता और संगठन में नई पीढ़ी पर दांव लगाने से नहीं हिचकती।भाजपा का तर्क साफ है—भारत एक युवा देश है और राजनीति में भी युवाओं की भाषा, ऊर्जा और तकनीकी समझ की ज़रूरत है। सोशल मीडिया, डिजिटल कैंपेनिंग और जमीनी स्तर पर सक्रियता जैसे क्षेत्रों में युवा नेता अपेक्षाकृत अधिक सहज दिखाई देते हैं। पार्टी ने बूथ स्तर से लेकर राष्ट्रीय मंच तक कैडर आधारित संरचना खड़ी की है, जहाँ कार्यकर्ता को यह भरोसा मिलता है कि मेहनत और संगठनात्मक निष्ठा के दम पर वह ऊपर तक पहुँच सकता है। यही कारण है कि भाजपा में “लीडरशिप पाइपलाइन” लगातार सक्रिय रहती है।इसके उलट कांग्रेस की स्थिति अलग तस्वीर पेश करती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस आज नेतृत्व संकट से जूझती दिखाई देती है। पार्टी पर यह आरोप लंबे समय से लगता रहा है कि वह निर्णय लेने में वरिष्ठ नेताओं के एक सीमित दायरे पर निर्भर है। कई राज्यों में वही चेहरे दशकों से सत्ता और संगठन पर हावी रहे हैं, जबकि नई पीढ़ी को या तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है या फिर हाशिए पर रहना पड़ता है। परिणामस्वरूप, कांग्रेस के भीतर असंतोष, गुटबाजी और पलायन की घटनाएँ बार-बार सामने आती हैं।कांग्रेस नेतृत्व का बचाव करने वालों का तर्क है कि अनुभव राजनीति में एक बड़ी पूंजी है। वरिष्ठ नेता जमीनी संघर्षों, प्रशासनिक चुनौतियों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी समझ रखते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अनुभव और उम्र के बीच संतुलन बनाया जा रहा है? आलोचकों का मानना है कि कांग्रेस में यह संतुलन बिगड़ चुका है, जहाँ युवा नेताओं को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने और नेतृत्व करने के पर्याप्त अवसर नहीं मिलते।यह भी सच है कि कांग्रेस ने समय-समय पर युवा चेहरों को आगे लाने की कोशिश की है, लेकिन ये प्रयास अक्सर अधूरे या प्रतीकात्मक साबित हुए हैं। संगठनात्मक ढाँचे में वास्तविक बदलाव की कमी के कारण युवा नेता या तो निराश होकर पार्टी छोड़ देते हैं या फिर सीमित भूमिका में सिमट जाते हैं। इसके विपरीत भाजपा ने संगठनात्मक चुनाव, प्रशिक्षण और जिम्मेदारी के स्पष्ट ढाँचे के ज़रिए नेतृत्व विकास को संस्थागत रूप दिया है।इस बहस का एक अहम पहलू मतदाता भी है। आज का मतदाता पहले से अधिक जागरूक, सवाल पूछने वाला और तेज़ी से बदलती दुनिया से जुड़ा हुआ है। रोजगार, शिक्षा, तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा जैसे मुद्दों पर युवा नेतृत्व की पकड़ अधिक प्रभावी मानी जाती है। भाजपा ने इस मनोविज्ञान को समझते हुए अपनी राजनीति को युवाओं के सपनों और आकांक्षाओं से जोड़ा है। वहीं कांग्रेस अभी भी कई बार अतीत की उपलब्धियों और विरासत पर ज़्यादा निर्भर दिखती है।हालाँकि यह कहना भी सरल निष्कर्ष होगा कि केवल उम्र ही सफलता या असफलता तय करती है। राजनीति में विचारधारा, संगठनात्मक अनुशासन और जनविश्वास कहीं अधिक निर्णायक होते हैं। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में यह स्पष्ट है कि भाजपा ने युवा नेतृत्व को अवसर देकर एक गतिशील छवि बनाई है, जबकि कांग्रेस को अपने “बुजुर्गवाद” के आरोप से बाहर निकलने के लिए ठोस और साहसिक कदम उठाने होंगे। अंततः यह बहस केवल दो दलों की तुलना नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य से जुड़ा प्रश्न है। क्या राजनीतिक दल समय के साथ खुद को ढाल पाएंगे, या वे जड़ता के शिकार हो जाएंगे? भाजपा और कांग्रेस के बीच युवा नेतृत्व बनाम बुजुर्गवाद की यह टकराहट आने वाले वर्षों में भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करने में अहम भूमिका निभाएगी।

 

 

 

 

 

 

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