भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
अमेरिकी अर्थव्यवस्था वर्ष 2025 में अभूतपूर्व दबाव झेल रही है और इसका सबसे बड़ा संकेतक वह रिकॉर्ड है जो 15 वर्षों में पहली बार टूट गया है। डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के बाद जिस आर्थिक स्थिरता और तेज़ सुधार की उम्मीद की जा रही थी, वह फिलहाल हकीकत से दूर दिखाई दे रहा है। इस साल अब तक कुल 655 बड़ी कंपनियों ने दिवालियापन घोषित कर दिया है, जो 2009 की मंदी के बाद सबसे बड़ा आंकड़ा है। यह संख्या केवल एक आर्थिक सूचक नहीं बल्कि उस गहरी अनिश्चितता का प्रतिबिंब है जिसमें अमेरिकी उद्योग जगत फंसा हुआ है। महामारी के बाद अर्थव्यवस्था जिस तेजी से रिकवरी करती दिख रही थी, वह रिकवरी बढ़ती महंगाई, ऊंची ब्याज दरों और घरेलू-वैश्विक मांग में गिरावट के चलते कमजोर पड़ गई। ट्रंप प्रशासन के लौटते ही जहां कारोबारियों ने टैक्स सुधार और विनियमन में ढील जैसी नीतिगत उम्मीदें की थीं, वहीं फेडरल रिजर्व की कठोर मौद्रिक नीति ने कॉरपोरेट सेक्टर के सामने वित्तीय संकट और गहरा कर दिया।रिटेल सेक्टर इस झटके का सबसे बड़ा शिकार बना है। ई-कॉमर्स प्रतिस्पर्धा, सप्लाई चेन की महंगी लागत और उपभोक्ताओं की घटती क्रय शक्ति ने कई बड़े ब्रांड्स को बंद होने पर मजबूर किया। कई कंपनियां वर्षों से संचित ऋण के सहारे चल रही थीं, लेकिन ऊंची ब्याज दरों ने उनकी वित्तीय रीढ़ तोड़ दी। रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन और मैन्यूफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों में भी यही स्थिति रही। महंगे लोन, घटती मांग और बाजार में अनिश्चितता के कारण डेवलपर्स और निर्माताओं के लिए परिचालन लागत संभालना मुश्किल हो गया। टेक सेक्टर, जिसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सबसे मजबूत नींव माना जाता है, वह भी इस संकट से अछूता नहीं रहा। स्टार्टअप फंडिंग में भारी गिरावट आई है, वेंचर कैपिटल निवेशक जोखिम उठाने से बच रहे हैं, और ए आई तथा बायोटेक स्टार्टअप जिन पर भविष्य की अर्थव्यवस्था निर्भर थी, वे भी वित्तीय संकट में फंस गए हैं।फेडरल रिजर्व ने महंगाई पर नियंत्रण के लिए दो साल के भीतर कई बार ब्याज दरें बढ़ाईं, लेकिन इसका सीधा दुष्प्रभाव कारोबारी दुनिया पर पड़ा। महंगे कर्ज ने कंपनियों की लागत बढ़ा दी और कई फर्में अपने ऋण सेवा तक नहीं संभाल पाईं। दूसरी ओर, ट्रंप प्रशासन लगातार टैक्स कटौती और ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीतियों को तेज़ी से लागू करने के प्रयास में है, लेकिन मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति के बीच यह टकराव आर्थिक माहौल में और अधिक अनिश्चितता पैदा कर रहा है। निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है और कंपनियां भविष्य की रणनीतियां तय करने में हिचकिचा रही हैं।वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों ने भी इस संकट को गहरा किया है। चीन और यूरोप में सुस्ती से अमेरिकी निर्यातकों को भारी नुकसान हुआ, सप्लाई चेन में आई अव्यवस्था ने इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर ऑटो इंडस्ट्री तक को प्रभावित किया, और मध्य पूर्व में भू-राजनीतिक तनाव से कच्चे तेल की कीमतें अस्थिर बनी रहीं। इन सभी झटकों का सम्मिलित असर अमेरिकी उद्योगों की उत्पादन लागत पर पड़ा और कंपनियों का लाभ मार्जिन तेजी से घटता गया। जिन कंपनियों के पास पर्याप्त रिज़र्व नहीं थे, वे सीधे दिवालियापन की ओर बढ़ गईं । दिवालियापन का सामाजिक-आर्थिक असर भी तेजी से बढ़ रहा है। लाखों नौकरियां खतरे में हैं और कई सेक्टरों में पहले ही बड़े पैमाने पर छंटनी हो चुकी है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि यही रुझान जारी रहा तो 2025 के अंत तक बेरोजगारी दर में करीब 0.5% की और वृद्धि दर्ज की जा सकती है। इससे मजदूर वर्ग और मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति कमजोर होगी, जिसका असर उपभोक्ता मांग पर पड़ेगा और यह चक्र अर्थव्यवस्था को और नीचे खींच सकता है। बैंकिंग सेक्टर भी सतर्क मोड में चला गया है, जिससे नई कंपनियों को कर्ज मिलना मुश्किल हो रहा है और पुराने बिज़नेस पुनर्गठन के लिए भी पर्याप्त पूंजी नहीं जुटा पा रहे हैं।इन परिस्थितियों में बड़ा सवाल यह है कि क्या ट्रंप प्रशासन के पास इस गिरते ग्राफ को थामने का कोई ठोस समाधान है। राष्ट्रपति ट्रंप ने विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने, टैक्स को सरल बनाने और विदेशी आयातों पर नियंत्रण कड़ा करने का वादा किया था, लेकिन आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा चुनौती केवल टैक्स सुधार से नहीं निपट सकती। इसके लिए ब्याज दरों में स्थिरता, सप्लाई चेन सुधार, छोटे बिज़नेस को वित्तीय सहायता और निवेश को प्रोत्साहित करने वाले कदमों की जरूरत होगी। यदि फेड आगामी महीनों में ब्याज दरों में कटौती का संकेत देता है, तो कर्ज बाजार में थोड़ी राहत मिल सकती है और कंपनियों को पुनर्गठन का मौका मिलेगा। विश्लेषकों का मानना है कि स्थिति अगले कुछ महीनों तक कठिन ही रहने वाली है। यदि नीतिगत हस्तक्षेप नहीं हुआ तो दिवालिया होने वाली कंपनियों की संख्या 700 से ऊपर जा सकती है। यह संकट अमेरिका की आर्थिक संरचना को कमजोर तो कर ही रहा है, साथ ही वैश्विक बाजारों में भी अस्थिरता बढ़ा रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में कंपनियों के इस तरह ढहने से अंतरराष्ट्रीय व्यापार, निवेश और वित्तीय बाजारों पर नकारात्मक असर पड़ना तय है।अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपनी मजबूती, नवाचार और विशाल उपभोक्ता आधार के लिए जानी जाती है, लेकिन मौजूदा स्थिति यह संदेश दे रही है कि केवल राजनीतिक नीतियां या टैक्स सुधार किसी अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं कर सकते। आर्थिक स्थिरता के लिए संतुलित मौद्रिक नीति, स्थिर वैश्विक वातावरण, मजबूत निवेश संरचना और उपभोक्ता विश्वास जरूरी है। ट्रंप प्रशासन को अपनी नीतियों को इस दिशा में मोड़ना होगा ताकि अमेरिका एक बार फिर विकास और स्थिरता की ओर लौट सके। अभी के हालात बताते हैं कि 655 कंपनियों का दिवालिया होना केवल एक आंकड़ा नहीं बल्कि उस चुनौती का प्रतीक है जिसके सामने दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था खड़ी है।