भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत में अमीरी और गरीबी के बीच खाई न सिर्फ गहरी हुई है बल्कि अब उस खाई को लाँघना आसान नहीं दिख रहा। हाल ही में प्रकाशित जी 20 के एक विश्लेषण-रिपोर्ट के मुताबिक, देश में शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी की संपत्ति 2000 से 2023 के बीच लगभग 62 प्रतिशत बढ़ी है। यह रिपोर्ट हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आर्थिक विकास की कथा जितनी गूंज रही है, उसी के बीच सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की नींव कितनी मजबूत है। यह सच है कि भारत में पिछले दशकों में तेज़ आर्थिक विकास हुआ है, जिसमें पूँजी-संचय का हिस्सा बढ़ा है। रिपोर्ट में यह इंगित है कि शीर्ष 1 % ने इस विकास-लहर में काफी लाभ उठाया है। सयुंक्त रूप से देखा जाए तो, इक्विटी मार्केट्स, निजी कंपनियों में हिस्सेदारी, रियल एस्टेट और बड़े उद्योग-संपत्तियों में निवेश का हिस्सा यथेष्ठ रूप से बढ़ा है — जो मुख्य रूप से शीर्ष श्रेणी की पहुँच में रहा है। इसके कारण आम-कर्मकार और मध्य-वर्ग के निवेश-साधन कम प्रभावी रहे।जब संपत्ति-संचय का चक्र मजबूत हो जाता है — जैसे भूमि, उद्योग का स्वामित्व, वित्तीय एसेट्स — तो संपत्ति वृद्धि तेज होती है। रिपोर्ट में इसे “चयनित अवसरों का लाभ” की दिशा में इंगित किया गया है। असमानता को बढ़ावा देने वाले कारकों में सामाजिक-सुरक्षा-नेट का कमजोर होना, वित्तीय समावेशन की कमी, तथा उच्च-वेतन वाले क्षेत्रों में अवसरों का केंद्रीकरण शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि “अत्यधिक असमानता विकल्प है, नियति नहीं”। रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी संपत्ति का केंद्रीकरण निरंतर बढ़ रहा है। भारत के मामले में – शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी ने 2000-23 के लगभग दो दशकों में उनकी संपत्ति-शेयर में 62 % तक का उछाल देखा। तुलना के लिए देखें तो चीन में यह वृद्धि उतनी नहीं रही—वहां लगभग 54 % रही। इसके पीछे छिपे अर्थ को समझना महत्वपूर्ण है। संपत्ति की बढ़ोतरी का मतलब सिर्फ वैल्यूएशन का बढ़ना नहीं, बल्कि यह संकेत है कि आर्थिक अवसरों का लाभ असमान रूप से मिला है। इस दौरान जितनी रफ्तार से शीर्ष-दर्जे के समूह ने दौलत जुटाई, उतनी ही तेजी से मध्यम और निम्न आय वर्ग की पकड़ कमजोर हुई।इस असमानता के बढ़ने के पीछे कुछ प्रमुख कारण उभर कर सामने आते हैं: विकास मॉडल का टॉप-हैवी होना: भारत ने पिछले दो-तीन दशकों में तेज आर्थिक विकास देखा है, लेकिन इस विकास का लाभ व्यापक अर्थों में फैला नहीं। बड़े उद्योग, मुनाफे वाले सेक्टर, संपत्ति संचय वाले समूह — इनका हिस्सा तेजी से बढ़ा है, जबकि अधिकांश नागरिक रोजमर्रा की चुनौतियों से जूझते रहे।संपत्ति-संचय और वंशवाद का रोल: जब दौलत जमा होती है, तो इसका संचय संसाधनों, निवेश-साधनों, संपत्ति-एसेट्स के जरिए होता है और अक्सर अगली पीढ़ी तक जाता है। इससे मध्य और निम्न वर्ग की आर्थिक गतिशीलता प्रभावित होती है।निजी निवेश-रिटर्न्स का लाभ: संपत्ति-इक्विटी, रियल एस्टेट, फाइनेंशियल मार्केट्स में जो बड़ा हिस्सा है, वह मुख्यतः शीर्ष-श्रेणी के पास जाता है। जबकि आम मजदूर-कृषक-सेवक के पास ये विकल्प सीमित रहते हैं।नीति-अस्तित्व और संसाधनों का बंटवारा: रोजगार-सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक सुरक्षा में काफी प्रयास हुए हैं, लेकिन उन्हें उस पैमाने पर नहीं बढ़ाया गया कि असम-पूरक गरीब-मध्यम वर्ग का विकेंद्रित विकास हो सके।यह संपत्ति असमानता मात्र आर्थिक समस्या नहीं रही, इसका सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव भी बहुत गहरा है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि असमानताओं के अत्यधिक स्तर वाले देश सात गुनों (7 गुना) तक अधिक संभावना रखते हैं कि उनकी लोकतांत्रिक प्रणालियाँ कमजोर पड़ी हों। भारत जैसे देश में, जहाँ सामाजिक गतिशीलता और न्याय के साथ-साथ राजनीतिक स्थिरता भी अहम है, यह संकेत गंभीर है।साथ ही, जब अमीर और गरीब के बीच दूरी बढ़ती है तो यह केवल आर्थिक विभाजन नहीं बनाती — 'हम और वे' की विभाजन रेखा खींचती है। इससे सामाजिक मामलों में असमयीकृत उपचरों जैसे शिक्षा-स्वास्थ्य में पिछड़ापन, भूख-प्यास-भरोसे की कमी, तथा रोजगार-अवसरों में कम परिवर्तनशीलता देखने को मिलती है।जब हम विकास को सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी)-की वृद्धि तक सीमित कर देते हैं, तो भूल जाते हैं कि उस वृद्धि का लाभ किसके हिस्से में गया। यदि शीर्ष 1 प्रतिशत का हिस्सा तेजी से बढ़े और आम लोगों की हिस्सेदारी स्थिर या घटे, तो विकास का सामाजिक-उद्देश्य अधर में रह जाता है।उदाहरण के लिए, जब संपत्ति और अवसर केंद्रीयकृत हो जाते हैं तो:मध्यम वर्ग सिकुड़ने लगता है और “सामान्य” कामगार-वर्ग के लिए आर्थिक-सुरक्षा कम होती जाती है।ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्र पीछे छूटते हैं क्योंकि निवेश-धारा और पूँजी प्रवाह शहर-उद्योग-अन्वेषण केंद्रों में केंद्रित हो जाती है।उत्पादकता-वृद्धि का असर सीमित रहता है क्योंकि व्यापक रूप से लोगों को अवसर नहीं मिले।समाज में असंतोष-भाव बढ़ता है और सामाजिक गतिरोध उत्पन्न हो सकते हैं।रिपोर्ट यही कहती है कि “अत्यधिक असमानता एक नियति नहीं बल्कि एक विकल्प है” यानी इसे उलटना संभव है। भारत में इसे वास्तविकता में बदलने के लिए कुछ सुझाव सामने आते हैं:संपत्ति-कराधान एवं उत्तराधिकार कर जैसे उपकरणों पर विचार।निवेश को निम्न-मध्यम वर्ग तक विस्तारित करना: शिक्षा-स्वास्थ्य-स्तर सुधरना, किफायती आवास-उपाय, वित्तीय समावेशन बढ़ाना।छोटे उद्योग-कृषि-स्वरोजगार को प्रोत्साहन देना, ताकि दौलत सृजन विविध हो सके।निजी निवेश-धाराओं के साथ सामाजिक विकास-व्यय को संतुलित करना।डेटा-इमर्सन, समग्र मूल्यांकन और समय-समय पर असमानता-रुझानों पर निगरानी रखना। जब हम यह आंकड़ा देखते हैं कि भारत में शीर्ष 1 प्रतिशत ने संपत्ति-शेयर में 62 % की वृद्धि की है, तो यह सिर्फ एक संख्या नहीं बल्कि चेतावनी-नुमा संकेत है। विकसित-दृष्टिकोण से अगर हम कहें, तो बाजू में खड़ी भारी दौलत के विशाल टावर के पीछे कितने लोग हैं जिनके लिए “सपने” अब भी अधूरे हैं — यह सवाल आज बड़ा महत्वपूर्ण हो गया है।यदि अर्थव्यवस्था का विकास समाज के समग्र हित में नहीं चलता, यदि राज्यों-नीतियों का केंद्र सिर्फ वृद्धि-केन्द्रित रहता है और वितरण-प्रभाव पर कम ध्यान देता है, तो उस विकास की नींव धराशायी हो सकती है। संपत्ति-असमानता को कम करना सिर्फ सामाजिक न्याय की बात नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र, आर्थिक स्थिरता और देश की दीर्घकालीन वृद्धि-योजना के लिए अनिवार्य है।इसलिए आज वक्त है कि नीति-निर्माता, राजनेता, नागरिक समाज और मीडिया मिलकर यह सुनिश्चित करें कि वृद्धि-की गति के साथ-साथ लाभ-का वितरण भी संतुलित हो।